ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी (साहित्यिक भाषा)
कबीर का जन्म कब और कहाँ हुआ था इसके बारे में इतिहासकारों के बीच में द्वन्द हैं. कबीर के जन्म स्थान के बारे में तीन मत सामने आते हैं मगहर, काशी और आजमगढ़ का बेलहरा गाँव. अधिकतर इतिहासकार इस बारे में यकीन रखते हैं कि कबीर का जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था. यह बात कबीर के दोहे की इस पंक्ति से जानने को मिलती हैं.
काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये
एक प्रचलित कथा के अनुसार कबीर का जन्म 1438 ईसवी को गरीब विधवा ब्राह्मणी के यहाँ हुआ था. जिसे ऋषि रामानंद जी ने भूलवश पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था. विधवा ब्राह्मणी ने संसार की लोक-लाज के कारण नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास छोड़ दिया था. शायद इसी कारण शायद कबीर सांसारिक परम्पराओं को कोसते नजर आते थे.
एक कथा के अनुसार कबीर का पालन-पोषण नीरू और नीमा के यहाँ मुस्लिम परिवार में हुआ. नीरू को यह बच्चा लहरतारा ताल के पास मिला था. कबीर के माता- पिता कौन थे इसके बारे में एक निश्चित राय नहीं हैं. कबीर नीरू और नीमा की वास्तविक संतान थी या उन्होंने सिर्फ उनका लालन-पोषण किया इसके बारे में इतिहासकारों के अपने-अपने मत है.
कबीर की शिक्षा के बारे में यहाँ कहा जाता हैं कि कबीर को पढने-लिखने की रूचि नहीं थी. बचपन में उन्हें खेलों में किसी भी प्रकार शौक नहीं था. गरीब माता-पिता होने से मदरसे में पढ़ने लायक स्थिति नहीं थी. दिन भर भोजन की व्यवस्था करने के लिए कबीर को दर-दर भटकना पड़ता था. इसी कारण कबीर कभी किताबी शिक्षा नहीं ले सके.
आज हम जिस कबीर के दोहे के बारे में पढ़ते हैं वह स्वयं कबीर ने नहीं बल्कि उनके शिष्यों ने लिखा हैं. कबीर के मुख से कहे गए दोहे का लेखन कार्य उनके शिष्यों ने किया था. उनके शिष्यों का नाम कामात्य और लोई था. लोई का नाम कबीर के दोहे में कई बार इस्तेमाल हुआ हैं. संभवतः लोई उनकी बेटी और शिष्या दोनों थी.
कबीर का पालन-पोषण बेहद ही गरीब परिवार में हुआ था. जहाँ पर शिक्षा के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था. उस दौरान रामानंद जी काशी के प्रसिद्द विद्वान और पंडित थे. कबीर ने कई बार उनके आश्रम में जाने और उनसे मिलने की विनती की लेकिन उन्हें हर बार भगा दिया जाता था और उस समय जात-पात का भी काफी चलन था. ऊपर से काशी में पंडों का भी राज रहता था.
एक दिन कबीर ने यह देखा कि गुरु रामानंद जी हर सुबह 4-5 बजे स्नान करने के लिए घाट पर जाते हैं. कबीर ने पूरे घाट पर बाड लगा दी और बाड का केवल एक ही हिस्सा खुला छोड़ा. वही पर कबीर रात को सो गए. जब सुबह-सुबह रामानंद जी स्नान करने आये तो बाड देखकर ठीक उसी स्थान पर से निकले जहाँ से कबीर ने खुली जगह छोड़ी थी. सूर्योदय से पूर्व के अँधेरे में गुरु ने कबीर को देखा नहीं और कबीर के पैर पर चढ़ गए. जैसे ही गुरु पैर पर चढ़े कबीर के मुख से राम राम राम निकल पड़ा.
गुरु को प्रत्यक्ष देख कबीर बेहद ही खुश हो गए उन्हें उनके दर्शन भी हो गए, चरण पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और इसके साथ ही राम नाम रूपी भक्तिरस भी मिल गया. इस घटना के बाद रामानंद जी ने कबीर को अपना शिष्य बना लिया.
कबीर दास के एक पद के अनुसार जीवन जीने का सही तरीका ही उनका धर्मं हैं. वह धर्मं से न हिन्दू हैं न मुसलमान. कबीर दास जी धार्मिक रीति रिवाजों के काफी निंदक रहे हैं. उन्होंने धर्म के नाम पर चल रही कुप्रथाओं का भी विरोध किया हैं. कबीर दास का जन्म सिख धर्मं की स्थापना के समकालीन था इसी कारण उनका प्रभाव सिख धर्मं में भी दिखता हैं. कबीर ने अपने जीवन काल में कई बार हिन्दू और मुस्लिमो का विरोध झेलना पड़ा.
संत कबीर की मृत्यु सन 1518 ई. को मगहर में हुई थी. कबीर के अनुयायी हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों में बराबर थे. जब कबीर की मृत्यु हुई तब उनके अंतिम संस्कार पर भी विवाद हो गया था. उनके मुस्लिम अनुयायी चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति से हो जबकि हिन्दू, हिन्दू रीति रिवाजो से करना चाहते थे. इस कहानी के अनुसार इस विवाद के चलते उनके शव से चादर उड़ गयी और उनके शरीर के पास पड़े फूलों को हिन्दू मुस्लिम में आधा-आधा बाँट लिया. हिन्दू और मुसलमानों दोनों से अपने तरीकों से फूलों के रूप में अंतिम संस्कार किया. कबीर के मृत्यु स्थान पर उनकी समाधी बनाई गयी हैं.
कबीर के नाम पर एकसठ रचनाएँ उपलब्ध हैं. जिसके नाम निम्नानुसार हैं
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Very interesting and surprised story or history of Kabir Das .
bahut hi achhi biography batai hai
ਸੰਤ ਕਬੀਰ ਜੀ ਬਾਰੇ ਆਪ ਜੀ ਨੇ ਬਹੁਤ ਵਧੀਆ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਬਹੁਤ ਖੁਸ਼ੀ ਹੋਈ.
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संत कबीर वास्तव में मानवता के पक्षधर थे। इसीलिए वे हमेशा सभी धर्मों में व्याप्त आडंबरों का विरोध करते रहे। हम उन्हें विद्रोही कवि और सजग संत भी कह सकते हैं।
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Bhai bahut hi acha samjaya per unka janm 1440 main nahi balki 1398 main hua tha
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Biography of Kabir Das in Hindi – कबीर दास एक महान समाज सुधारक, कवि व संत थे। उनका जन्म 14वीं सदी के अंत (1398 ई.) में काशी में हुआ था। उस समय मध्यकालीन भारत पर सैयद साम्राज्य का शासन हुआ करता था।
कबीर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर किया जिसकी वजह से उन्हें “समाज सुधारक” कहा जाने लगा। उन्होंने धर्म व जातिवाद से ऊपर उठकर के नीति की बातों को बताया जिसकी वजह से हिंदू व मुस्लिम धर्म के लोग ने उनकी आलोचना करी। परंतु, जब कबीर का देहांत हुआ तब हिंदू व मुस्लिम लोगों ने उनको अपने-अपने धर्म का संत माना।
कबीरदास भक्तिकाल के कवि थे जो वैराग्य धारण करते हुए निराकार ब्रह्म की उपासना के उपदेश देते हैं। कबीरदास का समय कवि रहीम व सूरदास के समय से पहले का है।
Table of Contents
नाम | कबीर दास (Kabir Das) |
जन्म | 1398 ईश्वी, वाराणसी, उत्तर-प्रदेश |
पालनहारी माता | नीमा (किवदंती के अनुसार) |
पालनहारी पिता | नीरू (किवदंती के अनुसार) |
विवाह स्थिति | अविवाहित (विवादास्पद) |
रचनाएँ | साखी, सबद, रमैनी |
प्रसिद्धि का कारण | समाज-सुधारक, कवि, संत |
मृत्यु | 1518 ईस्वी, मगहर, उत्तर-प्रदेश |
उम्र | 120 वर्ष (विवादास्पद) |
कबीरदास का जन्म 1398 ईस्वी को भारत के प्रसिद्ध शहर काशी में हुआ था। परंतु, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कबीर का जन्म 1440 ईस्वी को हुआ था। एक किवदंती के अनुसार, कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था। विधवा महिला ने लोक लाज के भय से इस नवजात शिशु को त्यागने का निश्चय किया। उसने अपने शिशु को लहरतारा तालाब के किनारे एक टोकरी के अंदर छोड़ दिया।
उसी तालाब के पास नीरू और नीमा नाम के एक जुलाहा दंपत्ति रहा करते थे। वे नि:संतान थे। बच्चे की रोने की आवाज को सुनकर के नीरू और नीमा तालाब की तरफ आ गए। उन्होंने देखा कि एक टोकरी के अंदर एक छोटा सा बच्चा रो रहा है।
इस बच्चे को उन्होंने भगवान का दिया हुआ कुलदीपक समझ कर अपना पुत्र मान लिया और उसका पालन पोषण किया।
ऐसा माना जाता है कि नीरू और नीमा मुसलमान थे। अर्थात् कबीर का शुरुआती जीवन मुस्लिम जुलाहा परिवार में गुजरा था।
कबीर दास जी अनपढ़ थे, उन्होंने जो कुछ सीखा वह अपने अनुभव से सीखा। सद्गुरु रामानंद की कृपा से उन्हें आत्मज्ञान व प्रभुभक्ति का वास्तविक अर्थ समझ में आया।
कबीर का पालन-पोषण उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था। वह मुस्लिम जुलाहा दंपति के यहां बड़े हो रहे थे। काशी में ही उन्हें एक गुरु रामानंद के बारे में पता चला।
रामानंद उस समय के एक महान हिंदू संत थे। गुरु रामानंद काशी में ही रहकर के अपने शिष्यों व लोगों को भगवान विष्णु में आसक्ति के उपदेश दिया करते थे। उनके शैक्षणिक उपदेशों के मुताबिक भगवान हर इंसान में हैं, हर चीज में हैं।
कबीर गुरु रामानंद के शिष्य बन गए और उनके उपदेशों को सुनने लगे। जिसके बाद ये धीरे-धीरे हिंदू धर्म के वैष्णव की ओर अग्रसर हुए। कबीर दास ने रामानंद को ही अपना गुरु माना।
उन्होंने वैष्णव के साथ-साथ सूफी धारा को भी जाना। इतिहासकारों के अनुसार, कबीर गुरु रामानंद के यहां ज्ञान प्राप्त करने के बाद संत बन गए और श्रीराम को अपना भगवान माना।
संत कबीर की विशेषताएं निम्नलिखित है-
कबीर दास बचपन से ही एकांतप्रिय इंसान थे। वे अकेले में रहना पसंद करते थे।
एकांतप्रिय स्वभाव के कारण उनकी बुद्धिमता में बहुत ज्यादा विकास हुआ। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, कबीर दास जी आजीवन अविवाहित रहे।
कबीर दास एक चिंतनशील इंसान भी थे। उनका अधिकांश समय काव्य रचना व उसके लिए सोच विचार पर जाता था। वह समाज में व्याप्त बुराइयों पर अच्छी तरह चिंतन करके कटु काव्य खंडों की रचना करते ताकि वे उन बुराइयों को समाज से खत्म कर सकें।
कबीर दास की अधिकांश रचनाएं बहुत ही मार्मिक और स्पष्टवादी हैं। अपने चिंतन से भाषा की कठिनाइयों को त्याग करके उन्होंने साधारण व लोकमानस में रचित होने वाली भाषा का प्रयोग किया।
कबीर दास जी ने गुरु को सबसे बड़ा बताया। उन्होंने गुरु को ही अपना सगा-संबंधी माना और उन्हीं के प्रति आसक्त रहे।
कबीर ने निराकार ब्रह्म को मान करके सांसारिक जीवन से सार्थकता पाने पर विश्वास जताया। निराकार ब्रह्म की अराधना से वे साधु की प्रवृत्ति में बदल गए। उन्होंने मूर्ति-पूजा व बाह्य आडंबरों को नकारते हुए कहा कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं।
कबीर दास जी ने माना कि सभी इंसान चाहे वो हिंदू हो, मुस्लिम हो या किसी अन्य धर्म का हो, वो सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं।
उन्होंने बाह्य आडंबरों व पाखंडों को कटु शब्दों से कोसा। ईश्वर की प्राप्ति हेतु अलग-अलग धर्मों में अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों को नकारा। उन्होंने वैष्णव व सूफीवाद को माना। उनके गुरुजी के अनुसार भगवान हर व्यक्ति में है, हर चीज में है और उनमें कोई भी विभेद नहीं है।
कबीर आत्मिक उपासना यानि कि मन की पूजा पर विश्वास करते थे। उन्होंने ईश्वर के लिए की जाने वाली दिखावटी पूजा, नवाज, व्रत व अन्य सभी आडंबरों के प्रति व्यंग्य कसा।
उनके अनुसार निराकार ब्रह्म का स्मरण करने से मनुष्य का अहंकार मिट जाता है। इसलिए उन्होंने अहंकार को हमेशा त्यागने की बात कही।
कबीर दास जी ने समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, धार्मिक भेदभावों को कुचलने के लिए कई सारी रचनाएं लिखी।
कबीर दास जी की रचनाओं का मुख्य संकलन को बीजक कहा जाता है। बीजक में तीन भाग हैं –
कबीर दास जी ने समाज सुधार के लिए जो भी कार्य किए, उन कार्यों का संकलन उनके शिष्य धर्मदास ने किया। कबीर ने ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के मूल्यों को स्थापित किया।
अपनी रचनाओं में उन्होंने स्पष्ट भाषा का प्रयोग करते हुए संसार की नश्वरता, अहंकार, आडंबरों, नैतिक जीवन मूल्यों, सत्संगति, सदाचार इत्यादि पर खुलकर लिखा।
हालांकि कबीरदास जी अनपढ़ थे। वह लिख नहीं पाते थे, परंतु अपने शिष्य धर्मदास की मदद से लिखवाते थे।
संत काव्य परंपरा में उनके द्वारा रचित रचनाएं हिंदी साहित्य के लिए एक अमूल्य निधि है।
इतिहासकारों के मुताबिक, कबीर दास जी की मृत्यु सन् 1518 ईस्वी को 120 वर्ष की उम्र में वर्तमान उत्तर-प्रदेश राज्य के मगहर नगर में हुआ थी।
एक किवदंती के अनुसार, जब कबीर दास जी की मृत्यु हुई थी तब हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोग उनकी मृत्यु शैया उठाने के लिए आ गए। हिंदुओं के मुताबिक कबीर दास जी हिंदू धर्म के थे, परंतु मुसलमानों के मुताबिक वे मुस्लिम थे। जिसकी वजह से यह विवाद बढ़ गया।
आखिर में यह निर्णय हुआ कि कबीर दास जी के आधे शरीर का अंतिम संस्कार हिंदुओं के द्वारा होगा व आधे शरीर का अंतिम संस्कार मुसलमानों के द्वारा होगा।
यह निर्णय लेने के बाद, जब कबीर दास जी के मृत शरीर से चदर उठाई गई तब उनके मृत शरीर की जगह बहुत सारे फूल मिले। इस तरह के अलौकिक दृश्य को देखकर सभी लोगों ने माना कि कबीर दास जी स्वर्ग सिधार गए हैं।
आखिर में, लोगों ने उन फूलों को आधे-आधे करके विसर्जित कर कबीर दास जी का अंतिम संस्कार किया।
कबीर दास जी की मृत्यु जिस जिले में हुई थी उस जिले का नाम संतकबीरनगर रखा गया।
परंतु कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, कबीर दास जी की मृत्यु 1440 में हुई थी।
इस तरह के अंतर्विरोधों से पता चलता है कि कबीर दास जी की मृत्यु व जन्म की पूर्ण जानकारी स्पष्ट नहीं है।
यह भी पढ़ें – रहीम के प्रसिद्ध दोहे
क्र. सं. | पुस्तक का नाम |
---|---|
1. | कबीर की रचना – बीजक |
2. | कबीर दोहावली |
3. | कबीर के दोहे |
कबीर दास जी का जन्म 1398 ईस्वी को काशी में एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था। किवदंती के अनुसार, विधवा माता ने लोक-लाज के भय से नवजात शिशु को लहरतारा तालाब के किनारे पर टोकरी में छोड़ दिया।
कबीर दास की सभी रचनाओं का संकलन बीजक में किया गया है जिनमें तीन भाग हैं – साखी, सबद, रमैनी। कबीर दास की सभी रचनाएं उनके शिष्य धर्मदास के द्वारा लिखी गई हैं।
कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, कबीर दास जी अविवाहित थे। परंतु कुछ के मुताबिक, वे विवाहित थे। अतः यह बिन्दु विवादास्पद है।
कबीर दास जी इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि वे एक महान समाज सुधारक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों, ऊँच-नीच, सामाजिक भेदभावों को दूर करने का प्रयास किया। इसके अलावा वे एक महान कवि व संत भी थे।
कबीर दास जी की मृत्यु 1518 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के मगहर नगर में हुई थी। जिस स्थान पर उनकी मृत्यु हुई थी उस जिले को आज संत कबीर नगर के नाम से जाना जाता है।
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2 thoughts on “कबीर दास जी का जीवन परिचय | kabir das biography in hindi”.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कबीरदास के समान विद्वान इंसान बहुत ही कम लोग होते हैं
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संत कबीर पर निबंध Essay On Sant Kabir In Hindi : प्रिय दोस्तों आपका स्वागत हैं, आज हम हिंदी के महान कवि एवं समाज सचेतक कबीर दास के जीवन पर निबंध Sant Kabir Essay के रूप में बता रहे हैं.
यदि आप संत कबीर का जीवन परिचय, जीवनी, इतिहास, रचनाएँ (Life introduction, biography, history, compositions) के बारे में जानकारी चाहते हैं तो इस Short Essay को पढ़े.
Sant Kabir Essay In Hindi: कबीर के जन्म काल, जीवन मरण तथा जीवन की प्रसिद्ध घटनाओं के विषय में किवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं. जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म 1397 ई में काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था. किन्तु लोकापवाद के भय से वह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई.
इनका पालन पोषण नीरू नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने किया. इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से उत्पन्न हुए थे, लेकिन उनका पालन पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ. कबीर ने भी अपने को कविता में अनेक बार जुलाहा कहा हैं.
बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए. कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिन्दू शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफनाना. कबीर का दोनों धर्म पर समान अधिकार था.
इस पर विवाद हुआ, किन्तु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्ध्यान हो गया. वहां कुछ कुछ फूल है उनमें से कुछ को हिन्दुओं ने जलाया तथा कुछ को मुसलमानों ने दफनाया. कबीर की पत्नी का नाम लोई था.
उनकी सन्तान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता हैं. कबीर के प्रधान शिष्यों में धर्मदास ने कबीर की वाणी का संग्रह किया. ऐसा माना जाता हैं कि कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन 1518 ई में हुई.
संत कबीर का अपना पंथ या सम्प्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता हैं. रामानंद इनके दीक्षा गुरु थे. उनके नाम का मंत्र लेने के लिए ये पंचगंगा घाट की
उन सीढियों पर जा पड़े, जहाँ से प्रातःकाल रामानंद स्नान करने जाते थे. अँधेरे में रामानंद के चरण कबीर साहब पर पड़ गये और रामानंद ज बोल उठे राम राम कह.
आगे चलकर यही मंत्र मानुषी सत्य की महान लक्ष्य प्राप्ति में तथा विषमता के दुराग्रहों को छोड़कर सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना में सहायक हुआ. शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरु कहा जाता हैं,
किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती, सम्भवतः संत कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन इन सबसे किसी न किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे.
संत कबीर की जाति के विषय में हजारी प्रसाद द्वेदी ने अपनी पुस्तक कबीर में प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रथा, वयन जीवी बुनकर जातियों के रीति रिवाज का विवेचन विश्लेष्ण करके दिखाया हैं. आज की वयनजीवी जातियों में से अधिकाँश किसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती थी.
जोगी नामक आश्रम भ्रष्ट घरबारियों की एक जाति सारे उत्तर और पूर्वी भारत में फैली हुई थी. ये नाथपंथी थे, कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख मांगकर जीविका चलाया करते थे. इनमें निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी.
मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे धीरे मुसलमान होते रहे. पंजाब, उत्तर परदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया. कबीरदास इन्ही नवधर्मान्तरित लोगों में पालित हुए थे.
महाकवि संत कबीर दास समजचेतक कवि कबीर का जन्म 1398 में कशी उत्तरप्रदेश में हुआ. कबीरदास के पिता का नाम नीरू और माता नीमा को माना जाता है. कबीर का जन्म एक ब्राहमण के घर हुआ था. कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था.
ब्राह्मणी सामाजिक डर से कबीर को तालाब के किनारे छोड़ आई. उसके बाद कबीर का लालन पलान नीरू और नीना ने किया जिस कारण इनके माता पिता नीरू और नीना को माना जाता है.
इस प्रकार कबीर का बचपन अभावो और संघर्षो में बिता. पर कबीर ने जन्म हिन्दू परिवार में लिया और उनका पालन पोषण मुस्लिम परिवार द्वारा किया गया. यानी इन्होने जन्म से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्ष किया था.
कबीर जी का जीवन संघर्ष में जीने के कारण ये शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए. शिक्षा की प्राप्ति के लिए कबीर ने रामानंद को अपना गुरु बनाया और उनसे शिक्षा ग्रहण की. और जीवनभर हो रहे अत्याचारों और भ्रष्टाचार के विरोधी रहे.
संत कबीर एक समाज सुधारक की भूमिका अदा भी करते थे. वे हमेशा समाज की भलाई के कार्य करते थे. कबीर ने अपना जीवन समाजसेवा में अर्पित कर दिया. सामाजिक प्रथाए जैसे पाखंड, अत्याचार, छुआछूत इत्यादि अनेक अपराधो का विरोध प्रदर्शन किया.
कबीर निर्गुण कवी थे. जो भगवान को एक ही मानते थे. कबीर का मानना था, कि भगवान् एकमात्र ही है, पर हम उनको अलग अलग रूपों में पूजा करते है. इन्होने हिन्दू मुस्लिम तथा सभी धर्मो को समान मान्यता दी है.
कबीर ने भगवान की भक्ति के लिए तन मन से भक्ति करने की बात कही है. कबीर कहते है. सच्चे मन से की गई भक्ति पूजा हमें भगवान के दर्शन कराती है. भगवान हमारे पास ही है.
कबीर ने सभी को भक्ति का मार्ग बताया. और आज भी कबीर हमारे लिए प्रेरणा का साधन है. कबीर हमें मन से भक्ति में लीन रहते थे.
कबीर के काव्य पर इन सबका प्रभाव देखा जा सकता हैं. उनमें वेदान्त का अद्वैत, नाथ पंथियों की अन्तस्साधना रहस्य भावना, हठयोगी, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता हैं.
कवि के रूप में कबीर जीवन की सहजता के अधिक निकट हैं. उनकी कविता में छंद, अलंकार, शब्द शक्ति आदि गौण है और लोकमंगल की चिंता प्रधान है. इनकी वाणी का संग्रह इनके अनुयायियों ने बीजक के नाम से किया हैं.
इसके तीन भाग है रमैनी, सबद और साखी. रमैनी और सबद में गाने के पद हैं तथा साखी दोहा छ्न्द में लिखी गई हैं. रमैनी, सबद ब्रजभाषा में है जो तत्कालीन मध्यदेश की काव्यभाषा थी.
संत कबीर ने अपनी कविता में अंतस्साधनात्म्क परिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी खूब किया हैं. साथ ही अहिंसा की भावना और वैष्णव प्रप्तिवाद थी. कबीर की भाषा मूलतः तो पूरब की है, किन्तु उनमें अन्य बोलियों का मिश्रण होने के कारण उसे सधुक्कड़ी कहा जाता हैं.
कबीर साहसपूर्वक जन बोली के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता करते हैं. बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही संत कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहा जाता हैं.
उनकी अंतत तेजस्विता उनकी भाषा शैली में भी प्रकट हैं. काजी, पंडित, मुल्ला को संबोधित करते समय वे प्रायः तन जाते हैं. पांडे कौन कुमति तोंहि लागी, कसरे मुल्ला बांग नेवाज, किन्तु सामान्य जन को या हरिजन को सम्बोधित करते समय वे भाई या साधो जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं.
कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों की उल्टबसियां प्रसिद्ध हाँ. उलटबासियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों की संधा भाषा में मिलता हैं. उलट बासियाँ अंतस्सध्नात्मक अनुभूतियों को आसामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हैं. वे वर्णाश्रम व्यवस्था को मानने वाले संस्कारों को धक्का देती हैं. इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलटबासियाँ समझ में आती हैं.
संत कबीरदास ने भक्ति पूर्व धार्मिक साधनाओं को आत्मसात अवश्य किया था. किन्तु वे इन साधनाओं को भक्ति की भूमिका या तैयारी मात्र मानते थे. जीवन की सार्थकता वे भक्ति या भगवद विषयक रति में मानते थे. यदपि उनके राम निराकार है,
किन्तु वे मानवीय भावनाओं के आलंबन हैं. इसलिए कबीर ने निराकार निर्गुण राम को भी अनेक प्रकार के मानवीय सम्बन्धों में याद किया हैं. वे भरतार है कबीर बहुरिया है. वे कबीर की माँ है- हरि जननी मैं बालक तोरा’ वे पिता भी हैं. जिनके साथ कबीर बाजार जाने की जिद करते हैं.
कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ और अनर्थक मानते हैं. इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे अपने युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, पर पीड़ा को चुनौती देते हैं. उनके काव्य, उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो अक्खड़पन, निर्भीकता और दोटूकपन है वह भी इसी भक्ति या महाराग के कारण.
वे पूर्व साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें जो नई अर्थवत्ता भरते हैं, वह भी वस्तुतः प्रेम भक्ति की ही अर्थवत्ता हैं. संत कबीर अपने अनुभव, पर्यवेक्षण और बुद्धि के निर्णायक मानते हैं,
शास्त्र को नहीं. इस दृष्टि से वे यथार्थ बोध के रचनाकार हैं. उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी कथनी और करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण. अपने देखने या अनुभव को न झुठलाने के कारण ही वे परंपरा द्वारा दिए गये समाधान को अस्वीकार करके नयें प्रश्न पूछते हैं.
चलन चलन सब लोग कहत है न जाने बैकुंठ कहाँ है या न जाने तेरा साहब कैसा हैं.
संत कबीर बहुत गहरी मानवीयता और सह्रदयता के कवि है. अक्खड़ता और निर्भयता उनके कवच हैं, उनके ह्रदय में मानवीय करुणा, निरीहता, जगत के सौन्दर्य से अभिभूत होने वाला ह्रदय विद्यमान हैं.
कबीर की एक और विशेषता है- काल का तीव्र बोड. वे काल को सर्वग्रासी रूप में चित्रित करते हैं और भक्ति को उस काल से बचने का मार्ग बताते हैं.
परम्परा पर संदेह, यथार्थ बोध, व्यंग्य, काल बोध की तीव्रता ओर गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव बोध के बहुत निकट लगते हैं. किन्तु संत कबीर में संतस्साध्नाताम्क रहस्य भावना भी है और राम में अन्यय भक्ति तो उनकी मूल भाव ही हैं.
नाद, बिंदु, कुंडलिनी, षडचक्रभेदन आदि का बारम्बार वर्णन कबीर काव्य का अंतस्सधनात्म्क रहस्यवादी पक्ष हैं. कबीर में स्वाभाविक रहस्य भावना बड़े मार्मिक तौर पर व्यक्त की गई हैं. ऐसे अवसर पर वे प्रायः जिज्ञासु होते हैं- कहो भईया अंबर कासौ लागा’
संत कबीर में जीवन के द्न्दात्म्क पक्ष को समझने की अद्भुत क्षमता थी. इस परस्पर विरोधिता को न समझने पर कबीर का मर्म नहीं खुलता. जिसे जीना कहा जाता हैं.
वह वस्तुतः जीवित रहने और मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते रहने की प्रक्रिया हैं. फिर भी लोग कुशल पूछते है और कुशल बताते हैं. लोग जीने का एक पक्ष देखते हैं दूसरा नहीं. कबीर इस पर व्यंग्य करते है, हंसते है और करुणा करते हैं.
”कुसल कुसल ही पूछते कुसल रहा न कोय जरा मुई न भय मुआ कुसल कहा ते होय”
कबीर विशाल गतिशील बिम्ब प्रस्तुत करते हुए आकाश और धरती को चक्की के दो पाट बताते हैं. चलती चाकी देखकर दिया कबीर रोय/ दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय,
इसी तरह वे समाधि, सत्संग, गुरु उपदेश, हरि भजन आदि की सुखा नुभूति का चित्रण उत्कृष्ट इन्द्रिय बोधात्मक तीव्रता के साथ करते हैं.
सतगुरु हमसू रीझ कर, कहा एक परसंग. बादर बरसा प्रेम का, भीज गया अंग. संत कबीर साद्रश्य विधान प्रायः अवर्ण जातियों का व्यवसाय के आधार पर खड़ा करते हैं.
जुलाहा, माली, कुम्हार, लोहार, व्याध, कलवार आदि के व्यवसायों का उपयोग वे प्रायः अलंकार योजना में करते हैं. यह भाव प्रायः सभी निर्गुण कवियों में पाया जाता हैं.
इस प्रकार भाषा, संवेदना, विचार प्रणाली सभी दृष्टियों में संत कबीर शास्त्रीयता के समक्ष खांटी देशीपन को महत्व देते हैं. संसकिरित के कूपजल को छोड़कर वे भाखा के बहते नीर तक स्वयं पहुचते हैं. और सबकों पहुंचाते हैं.
संस्कृत से मुक्त लोक संस्कृति को बनाने में उनका योगदान अप्रितम हैं. पंडित और मुल्ला यहाँ दोनों को एक वे एक साथ अप्रासंगिक कर देते हैं. मूलतः कवि होने के नाते शास्त्र की तुलना में वे अनुभव को प्रमाणिक मानते हैं. भाखापन को लेकर गहरा आत्मविश्वास भाव उनके रचनाकार व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती हैं.
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कबीरदास पर निबन्ध – essay on kabirdas in hindi.
संकेत-बिंदु –
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
भूमिका – हिंदी साहित्य को अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं से समृद्ध बनाया है। इन कवियों में तुलसीदास, सूरदास, मीरा, जायसी जयशंकर प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा आदि प्रमुख हैं। इन्हीं कवियों में कबीर का विशेष स्थान है, क्योंकि उनकी रचनाओं में समाज सुधार का स्वर विशेष रूप से मुखरित हुआ है।
जीवन-परिचय – ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाने वाले कबीर का जन्म सन् 1398 ई. में काशी में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। उसने लोक लाज के भय से कबीर को लहरतारा नामक स्थान पर तालाब के किनारे छोड़ दिया। उसी स्थान से नि:संतान नीरु-नीमा गुज़र रहे थे। उन्होंने ही बालक कबीर का पालन किया। कहा गया है
जना ब्राह्मणी विधवा ने था, काशी में सुत त्याग दिया। तंतुवाय नीरू-नीमा ने पालन कबिरादास किया।।
शिक्षा-दीक्षा – कबीर ने बड़े होते ही नीमा-नीरु का व्यवसाय अपना लिया और कपड़ा बुनने लगे। कबीर अनपढ़ रह गए थे। उन्होंने स्वयं कहा है –
मसि कागज छूयो नहिं, कलम गही नहिं हाथ।
कबीर ने अनुभव से ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने दोहे साखियों के रूप जो कुछ कहा उनके शिष्यों ने उसे संकलित किया। उनके शिष्यों ने उनके नाम पर एक मठ चलाया, जिसे कबीर पंथी मठ कहा जात है। इसके अनुयायी आज भी मिलते हैं।
रचनाएँ – कबीर अनपढ़ थे। उनकी साखियों, सबद और रमैनी का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में किया गया है। इनका मूल स्वर समाज सुधार, भक्ति-भावना तथा व्यावहारिक विषयों से जुड़ी बातें हैं।
समाज सुधार के स्वर – कबीरदास उच्चकोटि के साधक, संत और विचारक थे। वे भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास, बाह्य आडंबर, मूर्ति पूजा, धार्मिक कट्टरता और धार्मिक संकीर्णता पर चोट की है। उन्होंने जातिपाँति का विरोध करते हुए लिखा है –
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुअन न देई। वेस्या के पायन तर सोवे ये देखो हिंदुआई।
उन्होंने मुसलमानों को भी नहीं छोड़ा और कहा –
मुसलमान के पीर औलिया मुरगा-मुरगी खाई। खाला की रे बेटी ब्याहे, घर में करे सगाई।।
उन्होंने हिंदुओं की आडंबरपूर्ण भक्ति देखकर कहा –
पाहन पूजे हरि मिले, मैं पज पहार। ताते यह चकिया भली पीसि खाए संसार।।
उन्होंने ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग करने पर मुसलमानों पर प्रहार करते हुए कहा –
काँकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय। ता पर मुल्ला बाँग दे, का बहरा भया खुदाय।।
काव्य की भाषा – कबीर की भाषा मिली-जुली बोलचाल की भाषा थी, जिनमें ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी तथा पहाड़ी भाषाओं के शब्द मिलते हैं। इसे संधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी भी कहा जाता था। कबीर बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने के लिए जाने जाते हैं।
उपसंहार – कबीर संत कवि थे। उन्होंने समाज की बुराइयों पर जिस निर्भयता से प्रहार किया वैसा किसी अन्य कवि ने नहीं। वास्तव में कबीर सच्चे समाज सुधारक थे जिन्होंने कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया। कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने उसकाल में थे। हमें उनके मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
संत कबीरदास (kabirdas)हिन्दी साहित्य के भक्ति काल के अंतर्गत ज्ञानमार्गी शाखा के कवि हैं । कबीरदास का जन्म सन 1398 में काशी में लहरतारा तालाब के पास हुआ था । इनका पालन पोषण नीरू और नीमा नामक निःसंतान जुलाहा नें किया था।
इनके जन्म के संबंध मे कई मतभेद है कुछ अन्य लोगों का कहना है कि काशी में ब्राह्मण रहता था, उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वामी रामानन्द जी ने उसकी विधवा कन्या को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था । इसके बाद एक पुत्र हुआ, जिसे लोक लाज के कारण लहरतारा नामक तालाब के पास रख दिया ।
इस पड़े हुए बालक को नीरू नामक एक जुलाहा उठा ले गया और वह बालक अपनी पत्नी को दे दिया । ये नीमा और नीरू ही कबीरदास के माता पिता कहलाए । नीरू और नीमा मुसलमान थे, परंतु कबीर का बचपन से ही हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम था । वे राम नाम जपते थे और माथे पर तिलक लगाया करते थे ।
कबीर दास कि पत्नी का नाम लोई था । इनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था । कमाल से कबीर दास प्रसन्न नहीं थे । तब उन्होने लिखा –
बूढ़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल ।
रामानन्द ने सभी हिंदुओं को ईश्वर भक्ति का अधिकार प्रदान किया था । किन्तु कबीर दास मुसलमान परिवार में पले बढ़े थे, इसलिए रामानन्द जी ने उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था ।
पर कबीरदास(kabirdas) उनके शिष्य बनना चाहते थे । ऐसा कहा जाता है कि एक दिन सवेरा होने से पहले ही कबीर दास पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर जा कर लेट गए । रामानन्द जी वहाँ प्रतिदिन स्नान करने के लिए आया करते थे ।
अंधेरे में उनका पाँव कबीर से छु गया और वो चौक कर राम राम बोल उठे । कबीर ने इस राम नाम को ही गुरु का मंत्र मान लिया और उस दिन से वह अपने आप को रामानन्द का शिष्य मनाने लगे ।
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मुसलमान, कबीरपंथी शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं। शेख तकी कबीर के समकालीन थे। और लगता है कभी कभी उनका मुलाक़ात भी होता था। कबीर ने अपनी कविता में उनके नाम का भी उल्लेख किया है। पर जहां भी कबीर ने शेख तकी का नाम लिया है वहां वैसा आदर प्रदर्शित करते हुए नहीं लिखा जैसा गुरु के लिए प्रदर्शित करना उचित है बल्कि ऐसा लगता है जैसे शेख तकी को ही शिक्षा देना चाह रहे हो।
कबीर दास रामानंद जी को अपना गुरु मानते थे। क्योंकि उन्होंने रामानंद जी का नाम अपनी रचना में बड़े आदर से लिया है । एक जगह तो उन्होंने गुरु को भगवान से भी बड़ा बना दिया है
गुरु गोविंद दोनों खड़ेल, काके लागों पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
कबीरदास(kabirdas) जी ने अपना पूरा जीवन काशी में बिता दिया वे अपने अंतिम समय में मगहर चले गए और वही सन 1518 में उनकी मृत्यु हो गई।
कबीरदास जी का प्रमुख ग्रंथ बीजक है ।
जिसके तीन भाग है
अन्य कृतियों में
कबीरदास(kabirdas) जी निर्गुण, निराकार ब्रह्म के उपासक थे । उनकी रचनाओं में राम शब्द का प्रयोग हुआ है । निर्गुण ईश्वर की आराधना करते हुए भी कबीरदास महान समाज सुधारक माने जाते है । इनहोने हिन्दू और मुसलमान दोनों संप्रदाय के लोगों के कुरीतियों पर जमकर व्यंग किया ।
सांधु संतों की संगति में रहने के कारण उनकी भाषा में पंजाबी, फारसी, राजस्थानी , ब्रज, भोजपुरी तथा खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग किया है । इसलिए इनकी भाषा को साधुक्कड़ी तथा पंचमेल कहा जाता है । इनके काव्य में दोहा शैली तथा गेय पदों में पद शैली का प्रयोग हुआ है । श्रंगार, शांत तथा हास्य रस का प्रयोग मिलता है ।
कबीरदास(kabirdas) ने अपने उपदेशों में गुरु की महिमा , ईश्वर का विश्वास, अहिंसा तथा सदाचार पर बल दिया है । गुरु रामानन्द के उपदेशों के द्वारा इन्हें वेदान्त और उपनिषद का ज्ञान हुआ । कबीर दास निर्गुण भक्ति भक्ति, धारा में ज्ञान मार्ग के परवर्तक कवि है । इनके मृत्यु के पश्चात कबीर पंथ का प्रचलन प्रारंभ हुआ ।
कबीरदास कहते हैं कि यह संसार माया का खेल है माया के खेल में पढ़कर आत्मा अपने परमात्मा को भूल जाता है। परंतु मायाजाल को तोड़कर परमात्मा से मिले बिना उसे शांति किसी तरह से नहीं मिलती । माया के इस जाल को तोड़ने का उपाय केवल सदगुरू की कृपा से ही मालूम हो सकता है सदगुरू की कृपा बिना परमात्मा का दर्शन होना बहुत कठिन है।
कंचन और कामिनी मनुष्य को माया के फेर में फंसाए रखता है जो इनको छोड़ देता है उसका तो उद्धार हो जाता है पर जो इनके पीछे पड़ा रहता है उसका उद्धार होना बहुत मुश्किल है।
परमात्मा के दर्शन के लिए सच्चे प्रेम की आवश्यकता होती है जिसके हृदय में यह प्रेम जाग उठता है उसे परमात्मा के दर्शन किए बिना कभी चैन नहीं पड़ सकता।
इस यौवन और वैभव का अभिमान मनुष्य को कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह नश्वर है समान लोगों की तो बात ही क्या बड़े-बड़े सम्राटों का वैभव भी टिक नहीं सका।
कबीर कहते हैं कि मनुष्य को सबसे बड़ा लाभ मनुष्य जन्म पाकर, आत्मा किसी प्रकार परमात्मा के दर्शन कर सकें।
कबीर ने कविता काव्य का चमत्कार दिखाने के लिए नहीं लिखा, उन्होंने तो अपने हाथ से कभी कागज और स्याही छूने की भी कोशिश नहीं की बाद में उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी कविता का संग्रह कर दिया।
कबीर दास ने जो कहा वह अपने भक्ति संबंधी और ज्ञान संबंधी विचारों को प्रकट करने के लिए कहा, कबीर अपने समय के महान समाज सुधारक थे । इसलिए उनकी रचनाओं में उपदेश अधिक होने का स्वभाविक ही है कबीर की रचनाएं अधिकांश उपदेश प्रधान और खंडन प्रधान मिलता है । उन्होंने जहां तहां अपने विरोधियों की खिल्ली भी उड़ाई है उनकी कुछ रचनाओं में हठयोग के परिभाषिक शब्द और हठयोग की साधना पद्धतियों का भी वर्णन मिलता है । इस प्रकार की रचनाएं उन्होंने लोगों पर यह रौब जताने के लिए लिखी होंगी कि वह भी योग और साधना की बातों को खूब अच्छी तरह समझते हैं।
पतिवरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।
पतिवरता की रूप पर , बारों कोटि स्वरुप ।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं कि पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली- फटी साडी पहने हुए और कुरूप तो भी उसके रूप पर मै करोड़ों सुंदरियों को न्योछावर कर देता हूँ ।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपणे , जिन गोविन्द दिया दिखाय।।
अर्थ – गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े है, मै दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकड़ू । सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूँ कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविन्द से मिला दिया ।
परबति परबति मैं फिरया , नैन गँवायें रोइ ।
सो बूटी पाऊं नहीं , जातै जीवनी होई ।।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं की- एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो- रोकर ऑंखें भी गवां दी । मगर वह संजीवनी बूटी कहीं नहीं मिला, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय।
जब मै था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मै नाही ।
सब अँधियारा मिटि गया , जब दीपक देख्या माहि।।
अर्थ – कबीर दास जी कहते है की जब तक यह मानता था कि मैं हूं तब तक मेरे सामने हरि नहीं थे और अब हरि आ गए हैं तो मैं नहीं रहा अंधेरा और उजाला एक साथ ,एक ही समय, कैसे रह सकते हैं फिर वह दीपक अंतर में था।
कबीर के प्रसिद्ध दोहे पढ़ने के लिए इस लिंक पर जायें – कबीरदास के 50+ दोहे अर्थ सहित
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In this article, we are providing information about Kabir Das in Hindi or Essay on Kabir Das in Hindi- कबीरदास पर निबन्ध- कबीर का जीवन एवं साहित्यिक-परिचय का मूल्यांकन, कबीर का काव्य का भाव पक्ष
भूमिका- विश्व एक ऐसा रंगस्थल है जहाँ अनेक जीवधारी अपने जीवन का अघि करते है और अन्तत: मृत्यु के बाद जीवन-यात्रा का विश्राम प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो अपने महत् कर्मों से अपने शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अमर रहते हैं। विश्व उन्हें स्मरण करता है। हिन्दी साहित्य में कबीर ऐसे ही अद्भुत व्यक्तित्व सम्पन्न कवि हुए हैं जिन्होंने अपनी साहित्य-साधना के माध्यम से अमरत्व प्राप्त कर लिया है। उनके जीवन, जाति और धर्म के संबंध में यद्यपि विवाद है पर कबीर अपने कार्यों से एक जाति के नहीं, एक धर्म के नहीं सभी जाति और धर्म के मार्ग दर्शक बने हैं।
कबीर का जीवन एवं साहित्यिक परिचय- कबीर का जन्म संवत् 1456 वि. (1399 ई.) में माना जाता है-
चौदह सौ छप्पन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भए।
जेठसुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रकट भए॥ |
कबीर के जन्म के सम्बन्ध में एक किवंदती प्रचलति है। कहा जाता है कि एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से कबीर का जन्म हुआ। वह विधवा ब्राह्मणी गुरू रामानन्द जी के पास गई और उन्होंने उसे अन्जाने में ही पुत्रवती होने का आर्शीवाद दिया। शिशु का जन्म हो जाने पर वह ब्राह्मणी उसे लोक-लाज के कारण लहरतारा तालाब के किनारे छेड़ आई। यह शिशु नीमा और नीरु नामक जुलाहा दम्पति को मिला और वे उसे अपने घर ले आए। इन्होंने ही कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर की शिक्षा-दीक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था। उन्होंने स्वयं भी लिखा है-
मसि कागद कुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में भी निश्चय रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता है। रामानन्द तथा शेखतकी को इनके गुरु के रूप में माना जाता है ? कबीर ने लिखा है-
काशी में हम प्रकट भए, रामानन्द चेताए।
रामानन्द से उनकी दीक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में भी एक किवदंती प्रसिद्ध है। अंधेरे में जब रामानन्द नहाने के लिए गए तो मार्ग में कबीर लेट गए और रामानन्द का पांव उनके ऊपर पड़ गया। उनके मुख से ‘राम-राम’ निकाला और कबीर ने इसे गुरु मन्त्र मान लिया। कुछ विद्वानों का विचार है कि लोई नामक स्त्री से कबीर की शादी हुई थी तथा उनके कमाल और कमाली नामक पुत्र और पुत्री भी पैदा हुई। कबीर जुलाहे का कार्य करते और प्रभु की । भक्ति में भी लीन रहते थे। उनका जीवन सादा, सच्चा और भक्तिमय था। मृत्यु के समय
कबीर अन्ध्विश्वासों पर कड़ा प्रहार करने के लिए स्वयं ही मगहर में चले गए जहांउन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
मरति बार मगहर उठि धाया।
कबीर की मृत्यु के सम्बन्ध में यह दोहा भी प्रसिद्ध है-
संवत पन्द्रह सौ पछतर, कियो मगहर को मौन।
माघ सुदी एकादशी, रलों पौन में पौन॥
कबीर की सभी रचनाएं ‘बीजक’ में संगृहीत है। बीजक के तीन भाग हैं- साखी, सबद, तथा रमैणी। साखी दोहा छन्द में लिखी गई हैं।
कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब समाज अज्ञान, अन्धकार, अविश्वास अन्धविश्वास, आडम्बर, जाति-पांति, रूढ़ियों के कीचड़ में धंसा हुआ था। राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से यह युग अशान्ति का युग था, पतन का युग था। कबीर ने अपने युग को देखा, परखा और तब उसके मार्ग-दर्शक करने का प्रयास किया।
कबीर के काव्य का भाव पक्ष- वास्तव में कबीर का लक्ष्य कविता करना नहीं था अपितु अपनी आत्मा की आवाज़ को वे समाज तक पहुंचाना चाहते थे। दीपक की भान्ति जलकर वे समाज को प्रकाश देना चाहते थे। कबीर का व्यक्तित्व क्रान्तिकारी था। वे एक ओर बहुत ही कठोर प्रकृति के थे, तर्कशील थे दूसरी ओर अत्यंत कोमल और भावुक थे। वे निडर तथा निर्भीक थे और जो कुछ वे कहना चाहते उसे सीधे शब्दों में प्रकट कर देते थे। कबीर के काव्य का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है उसका विषय मूल रूप से भक्ति
और सामाजिक चिंतन है। उनके भक्ति चिंतन में ही उनके दार्शनिक विचार उपलब्ध होते हैं। उनका सामाजिक चिंतन अनेक मुखी है और अपने समाज में व्याप्त अनेक सामाजिक समस्याओं का उन्होंने विरोध किया है। इसके लिए उन्होंने हिन्दु और मुसलमान दोनों को ही फटकारा और दोनों की कुप्रथाओं पर कुठाराघात किया। हिन्दुओं में व्याप्त मूर्ति-पूजा, तत्र-मंत्र, माला, जप, छापा-तिलक, व्रत तीर्थ आदि को उन्होंने व्यर्थ बताया है।
जन्त्र मन्त्र सब झूठ है, मत भरमा जग कोय।
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होई ॥
———————-
जप माला छापा तिलक सरै न एको काम।
मन कांचे नाचे वृथा, सांचे रांचे राम ॥
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहार।
ताते यह चाकी भली, पीसी खाय संसार॥
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माला फेरत युग भया, मिटा न मनका फेर।
करका मनका हारि दे, मन को मनको फेर ॥
हिन्दुओं की भांति उन्होंने मुसलमानों को भी डांटा-फटकारा और उनमें व्याप्त रूढ़ियों का पर्दाफाश किया। मस्जिद की अजां. रोजा, नमाज, खतना, मांस-भक्षण ६ का विरोध उन्होंने स्पष्ट रूप में किया। उनकी तीखी वाणी पर सत्य कथन के विरोध में किसी की तक करने की शक्ति नहीं थी।
कांकरि पाथरि जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खदाय॥
——————
दिन भर रोजा रखत हैं, रात हुनत है गाय।
यह खून, वह बन्दगी, कैसे खुशी खुदाय ॥
मुसलमानों की हिंसा, हिन्दुओं की छुआछूत और सांप्रदायिक भावना का विरोध वे प्रखर स्वर में करते हैं और दोनों को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं
एक बून्द एकै मलमूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जाति है सब उपजाना, को बामन को सूदा ॥
अरे इन दोऊन राह न पाई।
हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई।।
इस प्रकार कबीर का सामाजिक पक्ष मानव मात्र के कल्याण की भावना से युक्त है। वास्तव में कबीर क्रान्तिकारी और निर्मीक व्यक्तित्व के चिंतक थे। उनका चिंतन सुधारवादी तथा मानवतावादी था इसलिए उनका स्वर अत्यंत प्रखर हो गया था। उनके काव्य का दूसरा । पक्ष अत्यंत कोमल तथा प्रेम रस से भीगा हुआ है। उनकी भावनाओं का आवेग, वाणी की कातरता, दीन-हीन पुकार निरीहता उनके प्रभु को भी करुणा से भर देती है। विरहिणी के रूप में अपने प्रियतम से बिछुड़ने पर उनकी विरह-भावना अत्यंत करुणा जनक बनती है तथा उसमें वेदना के स्वर अत्यंत प्रबल हो जाते हैं। ऐसे स्थलों पर कबीर का रहस्यवाद अत्यन्त भावात्मक हो उठता है।
कै बिरहन को मीच दे, के आपा दिखराए ।
आठ पहर का दानां, मो पै सहो न जाए।
————
आई सकें न तुझ पे, सकू न तुझे बुलाय।
जियरा यों ही लेगे, विरह तपाई तपाई ॥
ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी स्पष्ट धारणा है कि वह संसार में सर्वत्र व्याप्त है तथा कण-कण में विद्यमान है। माया के कारण ही वह हमें नज़र नहीं आता है। उनका चिंतन, जीव, जगत, माया, ब्रह्म आदि दार्शनिक तत्त्वों को सरल और सीधी भाषा में स्पष्ट करता है। ईश्वर की उपस्थिति उनके ही शब्दों में इस प्रकार समझी जा सकती है
ज्यों तिल मांहि तेल है, ज्यों चकमक में आगि।।
तेरा साई तुझ में, जागि सके तो जागि ॥
आत्मा और परमात्मा के मिलन की स्थिति उसी स्थिति में संभव है जबकि अज्ञान और या का परदा उठ जाता है। कुंभ और तालाब के जल के बीच में जब तक मिट्टी की दीवार है तब तक उनका मिलना संभव ही नहीं है। घड़े की दीवार टूटते ही दोनों में अभेद की
अति उत्पन्न हो जाती है। कबीर ने आत्मा को पत्नी तथा परमात्मा को पति का रूप देकर अत्यंत समर्थ प्रतीकों के द्वारा दोनों के मधुर मिलन का रूपक खींचा है।
दुलहनि गाबहु मंगलाचार।
हम घर आयडु राजा राम भरतार॥
निगुर्ण के उपासक कबीर के राम दशरथ के पुत्र राम न होकर उस ब्रह्म के प्रतीक है। जिसके लिए उन्होंने अनेक शब्दों का और प्रतीकों का प्रयोग किया है।
कबीर के काव्य का मूल्यांकन–महात्मा कबीर की सरल और पवित्र, जनहित कामना से प्रेरित वाणी जो काव्य रूप में प्रस्फुटित हुई है का मूल्यांकन कलावादी दृष्टि से करना सर्वथा ही असंगत है। कबीर मूल रूप से भक्त और सरल हृदय मानव मात्र के प्रेमी थे अतः उन्हें मनुष्य को गुमराह करने वाले अन्धकार में भटकाने वाले धर्म से घृणा थी। यही उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है। उनकी भाषा सधुक्कड़ी पंचमेल खिचड़ी थी। जिस प्रदेश में, स्थान में वे भ्रमण करते थे वहां के ही लोक प्रचलित शब्दों को अपने भावों के अनुकूल वे स्वयं बना लेते थे। इसीलिए उन्होंने शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा है। ब्रज, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी, पंजाबी, खड़ी बोली, संस्कृत आदि भाषाओं के शब्दों का उन्होंने प्रयोग किया है। कबीर की अनुभूति को प्रकट करने के लिए जो प्रतीक उनके काव्य में प्रयोग हुए हैं वे निश्चय ही अत्यन्त सजीव एवं मार्मिक है। उनके ये प्रतीक दैनिक जीवन से ही लिए गए हैं। अलंकारों के प्रति उनका कोई आकर्षण नहीं था लेकिन अलंकार उनकी कविता में स्वयं ही आ गए है और वे आरोपित नहीं लगते हैं। रस की दृष्टि से श्रृंगार और शान्त रस ही उनके काव्य के प्रधान रस हैं। कबीर काव्य का मूल्यांकन वस्तुत: उसके भाववादी दृष्टिकोण से मानवतावादी दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है।
उपसंहार-मध्यकालीन संत और भक्त कवियों में महात्मा कबीर की अपनी ही पहचान है और उनकी कविता की गंगा मानव के हित के लिए ही प्रवाहित हुई है। उनकी भक्ति एकांतिक भक्ति नहीं है। उनकी भक्ति में भी सरलता और पवित्रता है। उनका काव्य प्रेम और ज्ञान का दीपक है, उसमें विश्वबन्धुत्व की भावना है, तथा मानवतावाद का पोषण है। समन्वयवादी कबीर का हृदय संत हृदय था जो नवनीत से भी कोमल था।
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संत कबीर दास जयंती पर जानें उनके महान जीवन के बारे में.
Last Updated: June 19, 2022 By Gopal Mishra 65 Comments
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
कबीर एक ऐसी शख्शियत जिसने कभी शास्त्र नही पढा फिर भी ज्ञानियों की श्रेणीं में सर्वोपरी। कबीर, एक ऐसा नाम जिसे फकीर भी कह सकते हैं और समाज सुधारक भी ।
मित्रों, कबीर भले ही छोटा सा एक नाम हो पर ये भारत की वो आत्मा है जिसने रूढियों और कर्मकाडों से मुक्त भारत की रचना की है। कबीर वो पहचान है जिन्होने, जाति-वर्ग की दिवार को गिराकर एक अद्भुत संसार की कल्पना की।
मानवतावादी व्यवहारिक धर्म को बढावा देने वाले कबीर दास जी का इस दुनिया में प्रवेश भी अदभुत प्रसंग के साथ हुआ।माना जाता है कि उनका जन्म सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट लहराता नामक स्थान पर हुआ था ।उस दिन नीमा नीरू संग ब्याह कर डोली में बनारस जा रही थीं, बनारस के पास एक सरोवर पर कुछ विश्राम के लिये वो लोग रुके थे। अचानक नीमा को किसी बच्चे के रोने की आवाज आई वो आवाज की दिशा में आगे बढी। नीमा ने सरोवर में देखा कि एक बालक कमल पुष्प में लिपटा हुआ रो रहा है। निमा ने जैसे ही बच्चा गोद में लिया वो चुप हो गया।
नीरू ने उसे साथ घर ले चलने को कहा किन्तु नीमा के मन में ये प्रश्न उठा कि परिजनों को क्या जवाब देंगे। परन्तु बच्चे के स्पर्श से धर्म, अर्थात कर्तव्य बोध जीता और बच्चे पर गहराया संकट टल गया। बच्चा बकरी का दूध पी कर बङा हुआ। छः माह का समय बीतने के बाद बच्चे का नामकरण संस्कार हुआ। नीरू ने बच्चे का नाम कबीर रखा किन्तु कई लोगों को इस नाम पर एतराज था क्योंकि उनका कहना था कि, कबीर का मतलब होता है महान तो एक जुलाहे का बेटा महान कैसे हो सकता है? नीरू पर इसका कोई असर न हुआ और बच्चे का नाम कबीर ही रहने दिया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अनजाने में ही सही बचपन में दिया नाम बालक के बङे होने पर सार्थक हो गया। बच्चे की किलकारियाँ नीरू और नीमा के मन को मोह लेतीं। अभावों के बावजूद नीरू और नीमा बहुत खुशी-खुशी जीवन यापन करने लगे।
कबीर को बचपन से ही साधु संगति बहुत प्रिय थी। कपङा बुनने का पैतृक व्यवसाय वो आजीवन करते रहे। बाह्य आडम्बरों के विरोधी कबीर निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर देते हैं। बाल्यकाल से ही कबीर के चमत्कारिक व्यक्तित्व की आभा हर तरफ फैलने लगी थी। कहते हैं- उनके बालपन में काशी में एकबार जलन रोग फैल गया था। उन्होने रास्ते से गुजर रही बुढी महिला की देह पर धूल डालकर उसकी जलन दूर कर दी थी।
कबीर का बचपन बहुत सी जङताओं एवं रूढीयों से जूझते हुए बीत रहा था। उस दौरान ये सोच प्रबल थी कि इंसान अमीर है तो अच्छा है। बङे रसूख वाला है तो बेहतर है। कोई गरीब है तो उसे इंसान ही न माना जाये। आदमी और आदमी के बीच फर्क साफ नजर आता था। कानून और धर्म की आङ में रसूखों द्वारा गरीबों एवं निम्नजाती के लोगों का शोषण होता था। वे सदैव सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध थे और इसे कैसे दूर किया जाये इसी विचार में रहते थे।
एक बार किसी ने बताया कि संत रामानंद स्वामी ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लङाई छेङ रखी है। कबीर उनसे मिलने निकल पङे किन्तु उनके आश्रम पहुँचकर पता चला कि वे मुसलमानों से नही मिलते। कबीर ने हार नही मानी और पंचगंगा घाट पर रात के अंतिम पहर पर पहुँच गये और सीढी पर लेट गये। उन्हे पता था कि संत रामानंद प्रातः गंगा स्नान को आते हैं। प्रातः जब स्वामी जी जैसे ही स्नान के लिये सीढी उतर रहे थे उनका पैर कबीर के सीने से टकरा गया। राम-राम कहकर स्वामी जी अपना पैर पीछे खींच लिये तब कबीर खङे होकर उन्हे प्रणाम किये। संत ने पूछा आप कौन? कबीर ने उत्तर दिया आपका शिष्य कबीर। संत ने पुनः प्रश्न किया कि मैने कब शिष्य बनाया? कबीर ने विनम्रता से उत्तर दिया कि अभी-अभी जब आपने राम-राम कहा मैने उसे अपना गुरुमंत्र बना लिया। संत रामदास कबीर की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्हे अपना शिष्य बना लिये। कबीर को स्वामी जी ने सभी संस्कारों का बोध कराया और ज्ञान की गंगा में डुबकी लगवा दी।
कबीर पर गुरू का रंग इस तरह चढा कि उन्होने गुरू के सम्मान में कहा है,
सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज। सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए।। यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
ये कहना अतिश्योक्ति नही है कि जीवन में गुरू के महत्व का वर्णन कबीर दास जी ने अपने दोहों में पूरी आत्मियता से किया है। कबीर मुसलमान होते हुए भी कभी मांस को हाँथ नही लगाया । कबीर जाँति-पाँति और ऊँच-नीच के बंधनो से परे फक्कङ, अलमस्त और क्रांतिदर्शी थे। उन्होने रमता जोगी और बहता पानी की कल्पना को साकार किया। कबीर का व्यक्तित्व अनुकरणीय है। वे हर तरह की कुरीतियों का विरोध करते हैं। वे साधु-संतो और सूफी-फकीरों की संगत तो करते हैं लेकिन धर्म के ठेकेदारों से दूर रहते हैं। उनका कहना है कि-
हिंदू बरत एकादशी साधे दूध सिंघाङा सेती। अन्न को त्यागे मन को न हटके पारण करे सगौती।। दिन को रोजा रहत है, राति हनत है गाय। यहां खून वै वंदगी, क्यों कर खुशी खोदाय।।
जीव हिंसा न करने और मांसाहार के पीछे कबीर का तर्क बहुत महत्वपूर्ण है। वे मानते हैं कि दया, हिंसा और प्रेम का मार्ग एक है। यदि हम किसी भी तरह की तृष्णां और लालसा पूरी करने के लिये हिंसा करेंगे तो, घृणां और हिंसा का ही जन्म होगा। बेजुबान जानवर के प्रति या मानव का शोषण करने वाले व्यक्ति कबीर के लिये सदैव निंदनीय थे।
कबीर सांसारिक जिम्मेवारियों से कभी दूर नही हुए। उनकी पत्नी का नाम लोई था, पुत्र कमाल और पुत्री कमाली। वे पारिवारिक रिश्तों को भी भलीभाँति निभाए। जीवन-यापन हेतु ताउम्र अपना पैतृक कार्य अर्थात जुलाहे का काम करते रहे।
कबीर घुमक्ङ संत थे अतः उनकी भाषा सधुक्कङी कहलाती है। कबीर की वांणी बहुरंगी है। कबीर ने किसी ग्रन्थ की रचना नही की। अपने को कवि घोषित करना उनका उद्देश्य भी न था। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों का संकलन किया जो ‘बीजक’ नाम से जाना जाता है। इस ग्रन्थ के तीन भाग हैं, ‘साखी’, ‘सबद’ और ‘रमैनी’। कबीर के उपदेशों में जीवन की दार्शनिकता की झलक दिखती है। गुरू-महिमा, ईश्वर महिमा, सतसंग महिमा और माया का फेर आदि का सुन्दर वर्णन मिलता है। उनके काव्य में यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकारों का सुन्दर समावेश दिखता है। भाषा में सभी आवश्यक सूत्र होने के कारण हजारी प्रसाद दिव्वेदी कबीर को “भाषा का डिक्टेटर” कहते हैं। कबीर का मूल मंत्र था,
“मैं कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखिन”।
कबीर की साखियों में सच्चे गुरू का ज्ञान मिलता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कबीर के काव्य का सर्वाधिक महत्व धार्मिक एवं सामाजिक एकता और भक्ती का संदेश देने में है।
कबीर दास जी का अवसान भी जन्म की तरह रहस्यवादी है। आजीवन काशी में रहने के बावजूद अन्त समय सन् 1518 के करीब मगहर चले गये थे क्योंकि वे कुछ भ्रान्तियों को दूर करना चाहते थे। काशी के लिये कहा जाता था कि यहाँ पर मरने से स्वर्ग मिलता है तथा मगहर में मृत्यु पर नरक। उनकी मृत्यु के पश्चात हिन्दु अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान अपने धर्मानुसार विवाद की स्थिती में एक अजीब घटना घटी उनके पार्थिव शरीर पर से चादर हट गई और वहाँ कुछ फूल पङे थे जिसे दोनों समुदायों ने आपस में बाँट लिया। कबीर की अहमियत और उनके महत्व को जायसी ने अपनी रचना में बहुत ही आतमियता से परिलाक्षित किया है।
ना नारद तब रोई पुकारा एक जुलाहे सौ मैं हारा। प्रेम तन्तु नित ताना तनाई, जप तप साधि सैकरा भराई।।
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी की कबीर विचित्र नहीं हैं सामान्य हैं किन्तु इसी साघारणपन में अति विशिष्ट हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व कोई नही है।
अनिता जी दृष्टिबाधित लोगों की सेवा में तत्पर हैं। उनके बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें – नेत्रहीन लोगों के जीवन में प्रकाश बिखेरती अनिता शर्मा और उनसे जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
——– कबीर दास जी के दोहे ——
—– राजा की परीक्षा | संत कबीर दास प्रेरक प्रसंग —–
We are grateful to Anita Ji for sharing this inspirational Hindi Essay on Sant Kabir Das’s Life in Hindi . Thanks.
Note: 23 June 2013 is being celebrated as Sant Kanbir Das Jayanti .
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June 24, 2023 at 12:15 am
Thank you for this very comprehensive and interesting article.
June 16, 2022 at 2:27 pm
May 26, 2017 at 10:01 am
Kabir parmeswar ji ke charno me dandwat parnam
January 8, 2017 at 4:32 am
bahut Sikh mili muje, me aabhari hu aapka
December 29, 2016 at 11:15 pm
Sahib bandgi बहूत ही ला जवाब कबिरजी के दोहे ??
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Sukh mein Simran sab krein, Dukh mein virla koye, Jo Sukh mein Simran krein, Dukh kahe ko hoye Kabira Dukh kahey ko hoye….
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Kabir das in hindi कबीर दास.
Sant Kabir Das ke jeevan parichay in Hindi language Know more about Kabir Das in Hindi. We will talk about Kabir Das information in Hindi and Biography of Kabir Das in Hindi. कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 और 12 के बच्चों और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए कबीर दास की जीवन परिचय हिंदी में। Learn about Kabir Das biography in Hindi in more than 400 words. First of all we will talk about Biography then Kabir ke dohe which is more popular than his life.
हमारा देश भारत संत-महात्माओं की धरती के रूप में जाना जाता है। यहाँ ऐसे सैकड़ों संत हुए हैं, जिन्होंने अपने सरल जीवन और उच्च विचारों से लोगों को जीवन में अच्छाई अपनाने और बुराई से दूर रहने की प्रेरणा दी। ऐसे ही एक संत थे – कबीरदास। उनके जन्म के बारे में ठीक तरह से कुछ पता नहीं है। माना जाता है कि कबीर का जन्म सन् 1398 में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम नीमा और नीरू बताया जाता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि वे कबीरदास जी के असली माता-पिता थे, तो कुछ का मानना है कि नीरू नाम के एक जुलाहे को कबीरदास जी बचपन में एक सरोवर के किनारे पड़े मिले थे, जिन्हें उन्होंने अपनी पत्नी नीमा के साथ पाल-पोसकर बड़ा किया।
कबीर ने अपने एक दोहे में खुद को जुलाहे के रूप में पेश किया है। रामानन्द जी को उनका गुरु बताया जाता है। कबीरदास जी के जन्म आदि के बारे में भले ही अलग-अलग विद्वान् अलग-अलग राय रखते हों, लेकिन इस बात को लेकर सभी विद्वान् एकमत हैं कि कबीरदास जी ने हर संत-हर फकीर की अच्छी बातें अपनाईं और अपने दोहों के जरिए उन्हें आम जन तक पहुँचाया। कहते हैं कि कबीर के घर हमेशा साधु-संतों का जमावड़ा लगा रहता था।
जब कबीर का जन्म हुआ, तब हमारा समाज कई कुरीतियों से घिरा हुआ था। उन्होंने कर्मकांडों और कुरीतियों पर अपने सटीक और तर्कपूर्ण दोहों के ज़रिए खूब प्रहार किया। वे एक ईश्वर में विश्वास करते थे और छुआछूत, पाखंड, आडंबर इत्यादि को बिलकुल नहीं मानते थे। कबीर परमात्मा को मित्र और माता-पिता के रूप में देखते थे।
कबीरदास जी ने अपने दोहों की भाषा सरल और आसानी से समझी जा सकने वाली रखी, ताकि उनकी बात आम आदमी तक पहुँच सके। उन्होंने खुद कोई ग्रंथ नहीं लिखा, लेकिन उनकी शिक्षाओं को उनके शिष्यों ने लिख लिया। आज उनके इन्हीं वचनों के संग्रह को बीजक के नाम से जाना जाता है। इसके तीन भाग हैं-रमैनी, सबद और साखी। कबीरदास जी को शांतिमय जीवन पसंद था और वे अहिंसा और सत्य जैसे गुणों में विश्वास रखते थे। भले ही कबीरदास जी का देहांत वर्षों पहले हो गया हो, लेकिन अपने दोहों और शिक्षाओं के माध्यम से वे आज भी हमें रास्ता दिखा रहे हैं।
कबीरदास तुलसी के समान ही मध्यकाल के शीर्षस्थ भक्त और रचनाकार थे। हालाँकि कबीरदास ने अपने संदर्भ में लिखा है:
‘मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ’
किन्तु इसके बावजूद भी कबीर की कविता, युगों की दूरी तय कर के आज हमारे समय और समाज का अपनी गहरी मानवीय आकांक्षा से आकर्षित कर रही है। इससे तत्कालीन समय और समाज में कबीरदास की कविता की प्रभावशीलता क्या रही होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती।
कबीरदास का अविर्भाव जिस युग में हुआ था, वह भारतीय समाज का ‘संक्राति-युग’ था। राजनैतिक रूप से भारतीय समाज मुसलमान शासकों के अधीन था और उसे मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता की ओर से लगातार धार्मिक-सांस्कृतिक चुनौतियां मिल रही थीं। वहीं दूसरी तरफ, भारतीय समाज नित् नये धार्मिक संप्रदाया की बाढ़ को निर्मूक भाव से देख रहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस प्रकार के धार्मिक संप्रदायों के संदर्भ में ठीक ही लिखा: “भक्ति, प्रेम आदि हृदय के प्रकृत भावों को उनकी अंतस्साधना में कोई स्थान न था।” इसके अतिरिक्त भेदभाव, छुआछूत, धार्मिक संकीर्णता, बाह्य आडंबर, अर्थ-शून्य कर्मकांड़ आदि अनेक तत्कालीन समाज की ज्वलंत वास्तविकताएं थीं, जिनका समाहार भक्त-कवि कबीरदास ने अपनी काव्य-साधना के माध्यम से किया।
कबीरदास का जन्म सन् 1456 में हुआ था। जिसका संकेत निम्नांकित पंक्तियों में मिलता है।
चौदह सौ छप्पन साल गए, चंद्रवार एक ठाठ भर। जेठ सुदी वरसाइत की, पूरन मासी प्रकट भए।।
कबीरदास के जन्म के संबंध में एक किवदंती प्रसिद्ध है। जिसके अनुसार कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था, जिसने लोक-लाज के भय से बालक कबीर को काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे फेंक दिया था। वही बालक कबीर, कालांतर में नीमा-रीरू नामक एक जुलाहे दंपति की स्वच्छ स्नेहाच्छाया में पालित-पोषित हुआ।
अपने बाल्य जीवन से ही कबीर धार्मिक-प्रवृति के रहे थे। वे “राम राम” जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। किन्तु कबीर कोरे धार्मिक नहीं थे वे एक सजग और सचेत समाज-धर्मी पुरूष थे जिसे संसार की वक्र गति कष्ट पहुंचाती थी। इसके बारे में कबीर ने एक स्थान पर स्वयं लिखा है:
‘सुखिया सब संसार है, । खार्वे और सौवै । दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै’
कबीरदास मध्यकाल के संभवत; अकेले कवि थे, जिन्हें समाज की पीड़ा और दुख सबसे ज्यादा सालती और दुखी करती थी। कबीरदास ने सामाजिक-जीवन में व्याप्त भेदभाव और जातिगत छुआछूत को एकदम निजी स्तर पर महसूस किया था। यही कारण है कि भेदभाव और छुआछूत की शिकार जनता कबीर से आत्म विश्वास और सम्मान की अजस्र धारा आज भी ग्रहण करती है। आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लिखा है: “अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इय संत-महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है — आचरण की शुद्धता पर जोर देकर आंडंबरों का तिरस्कार करके, आत्म गौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होने इसे ऊपर उठाने का प्रयत्न किया। पाश्चात्यों ने इन्हें जो धर्म सुधारक की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर दी है।”
कबीर का समस्त काव्य, चाहे साखी रूप में लिखा गया हो, पदरूप में लिखा गया हो या फिर शब्द रूप में लिखा गया हो, वह संपूर्णता में मध्यकालीन समाज और संस्कृति की व्यापक चेतना से पूर्णतः संबद्धित काव्य है। हिन्दू-मुस्लिम के भेद को परे रखकर कबीर ने समस्त मानव समाज के समक्ष साधना का एक समान मार्ग प्रस्तुत किया। कबीर ने स्वयं को ‘न हिन्दू न मुस्लिम’ कह कर परिभाषित किया। यह छोटा सा वाक्य ही कबीरदास की गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताओं को मूर्त करता है।
वस्तुत: कबीरदास हिन्दी के ऐसे आरंभिक रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने मनुष्यता को खण्ड-खण्ड करने वाली प्रत्येक वस्तु का विरोध किया और जीवन भर मानवीय समता की लड़ाई लड़ते रहे। एक पद में कबीर लिखते हैं।
“अला एकै नूर उपनाया ताकी कैसी निन्दा। ता नूर थै कब जग कीया कौन भला कौन मंदा।।”
जिस सामयिक-सांस्कृतिक समता को लेकर कबीरदास काव्य रचना कर रहे थे उसकी दार्शनिक अभिव्यक्ति, पूर्ण सक्षमता में निम्नोक्त पद में दृष्टिगोचर होती है।
“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है बाहरि भीतर पानी। फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना यहु तत कथौ गियानी॥
अंत में, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय का यह कथन कबीर के संदर्भ में उद्धृत करना ही पर्याप्त है “वे हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच की एक कड़ी थे। उन्होंने ऊंच-नीच की भेद-भावना हटाकर एकीकरण का साहस किया। — उन्होंने धार्मिक ग्रंथों को महत्व न देकर धर्म के वास्तविक तत्व पर जोर दिया।”
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If you are done with knowing about Kabir Das let’s just talk about Kabir Das ke dohe . Further we have added Kabir ke dohe in hindi with meaning to make it easier for readers. Kabir Das ki rachnaye in Hindi, short poems of Kabir Das in Hindi and Kabir vani in Hindi.
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
कबीर दास जी कहते हैं, इस तन को मैंने दीपक बना लिया है और अपने प्राणों की बत्ती बना कर इसे रक्त के तेल से जला लिया है, हे प्रभु इस तरह आपकी भक्ति में अपने आपको आपको समर्पित कर दिया है, प्रभु आपके दर्शन कब होंगे।
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Hindi Dohe with meaning
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी , केस जलै ज्यूं घास । सब तन जलता देखि करि , भया कबीर उदास ।
कबीर दास जी कहते हैं, यह मानव शारीर अंत समय में लकड़ी की तरह जल जाता है और यह बाल घास की तरह जल जाते हैं, इस तरह मानव की व्यथा को देख कर कबीर का मन उदास हो जाता है।
Dohe of Kabir
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय , ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय ।
कबीर दास जी कहते हैं, बड़े बड़े ग्रन्थ और किताबों को पढ़ कर कोई पंडित और ज्ञानी न हो सका, लेकिन यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर का मतलब समझ जाए तो वह पंडित बन जाएगा।
कबीर दास जी का यहाँ कहने का मतलब है मानव जन्म प्यार और मोहब्बत करने के लिए मिला है इसे नफरत और लड़ झगड़ कर व्यर्थ न करो।
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कबीरदास पर निबन्ध | Essay on Kabirdas in Hindi!
कबीरदास जी कवि थे । इससे भी अधिक क्रांतिकारी, समाज सुधारक और ईश्वर भक्त थे । उन्होंने कविता जैसे माध्यम का प्रयोग, समाज सुधार के कार्य तथा समाज में फैले पाखण्ड तथा भ्रान्तियों को दूर करने के उद्देश्य से किया । कबीर जी ने कहीं से भी विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की थी ।
कहते हैं कि, उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था । फिर भी उनकी कविता का भाव इतना सशक्त बन पड़ा जिसके दृष्टिगत भाषा अथवा शैली का दोष अपदार्थ हो जाता है । यद्यपि कबीर जी पर कई विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा तो भी कबीर जी का अपना मौलिक दर्शन है । परिणामस्वरूप रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिष्ठित रचना गीतांजलि पर कबीर की रचना बीजक की गहरी छाप मिलती है ।
कबीरदास जी के जीवन-वृतान्त के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है । परन्तु कहते हैं कि :
“चौदह सो पचपन साल गये, चन्द्रवार इक ठाठ भये।
जेठ सुदी बरसाइत को , पूरनमासी प्रकट भये ।।’’
उनका जन्म संवत 1456 के आसपास हुआ था वे एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुए थे । समाज के भय के कारण वह नवजात शिशु को एक नदी के किनारे छोड़ गई । नीरू और नीमा नामक जुलाहा मुस्लिम दम्पत्ति ने शिशु को उठा लिया और उसका लालन-पालन किया वे निर्धन थे ।
वे कबीर जी की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध न कर सके । अत: जैसे ही कबीर जी बड़े हुए उन्हें कपड़ा बुनने का कार्य सिखाया । इस कार्य को वे जावन पर्यन्त करते रहे और किसी पर आश्रित नहीं रहे ।
कबीर स्वयं अपनी शिक्षा के बारे में कहते हैं :
ADVERTISEMENTS:
‘मसि कागज छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ ।’
कबीरदास जी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई तो वे गुरू की खोज करने लगे । उन दिनों काशी के स्वामी रामानन्द की प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई थी । कबीरदास जी उनके पास गए और उनसे गुरू बनकर ज्ञान देने की प्रार्थना की । स्वामी रामानन्द ने उन्हें शिष्य बनाना अस्वीकार कर दिया । कबीरदास अपनी धुन के पक्के थे । उन्हें पता था कि, स्वामीजी नित्य गंगा स्नान के लिए जाते हैं ।
एक दिन उसी मार्ग पर वे गंगाघाट की सीढ़ियों पर लेट गए । प्रात: जब हमेशा की तरह स्वामी रामानन्द जी गगा स्नान के लिए गए तो उनका पैर कबीरदास की छाती पर पड़ गया । उनके मुख से अकस्मात् निकला ‘ राम राम ‘ कहो भाई । कबीरदास जी की दीक्षा हो गई और यही वाक्य उनका गुरूमंत्र बन गया । वे जीवन भर राम की उपासना करते रहे ।
कबीरदास जी को इसी राम नाम की उपासना से ही ज्ञान हो गया । ईश्वर से साक्षात्कार हुआ और सत्य का पता चला । इस समय हिन्दू तथा मुसलमान दो धर्म मुख्य रूप से प्रचलित थे दोनों धर्मों को रूढ़ियों ने जकड़ रखा था । हिन्दू जाति-पांति और छुआछूत के अतिरिक्त मूर्तिपूजा, तीर्थों तथा अवतारवाद को मानते थे । मुसलमानों में रोजा और बाग का चलन था । कबीरदास जी ने निर्भीक होकर समाज तथा दोनों धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों पर प्रहार किये ।
हिन्दुओं की मूर्ति पूजा की रीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा :
” पाथर पूजै हरि मिलें, हम लें पूजि पहार ।
घर की चाकी कोई न पूजै , पिस खाय ये संसार ।। ”
कबीरदास के व्यंग्य की परिधि से मुसलमान भी न बच सके :
‘काँकर-पाथर जोरि के, मस्जिद लई चिणाय ।
जा चढ़ी मुल्ला बाँग दे , का बहरा हुआ खुदाय ।। ‘
कबीर ईश्वर भक्ति तथा शुद्ध मन से कर्म करने में विश्वास करते थे । उनकी दृष्टि में प्रेम तथा मानवता द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति संभव है कोरे किताबी ज्ञान से नहीं ।
इसलिये उन्होंने कहा है :
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ , पंडित भया न कोए
ढ़ाई अक्षर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होए ।।
कबीरदास जी की रचनाएँ सखी , सबद और रमैनी बीजक में संग्रहीत है । कबीर जी का भाषा में खड़ी बोली के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती, राजस्थाना ब्रज तथा अवधि के शब्द मिलते है । कबीरदास जी जीवन पर्यन्त समाज सुधार के काम में लगे रहे ।
एक अंधविश्वास के अनुसार काशी में मृत्यु होने से स्वर्ग और मगहर नामक स्थान में मृत्यु होने से नर्क मिलता है । इस अंधविश्वास को समाप्त करने के उद्देश्य से कबीरदास जी मृत्यु से पहले मगहर चले गए और वहीं उनका देहान्त हो गया ।
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In a world where everyone seems to be running after material success, we often forget what truly matters. Kabir Das, a 15th-century mystic poet, stands as a beacon of light, guiding us back to the essentials of love and harmony. Despite being centuries old, his messages cut through the noise of our busy lives, reminding us of the power of simplicity and truth.
Kabir Das didn’t just write poetry; he lived his verses, embodying the virtues of compassion and understanding in a divided society. By diving into his life and teachings, we invite you to see how his timeless wisdom can help us navigate the complexities of modern living, encouraging us to build a world where everyone feels valued and connected.
Table of Contents
Kabir Das was a 15th-century Indian mystic poet and saint, whose writings have significantly influenced the Bhakti movement. Known for his couplets, called ‘dohas’, Kabir Das was a critic of both Hinduism and Islam, advocating instead a universal path of spirituality. His works emphasized on inner purity, love for God, and the importance of a guru.
Kabir’s teachings are found in the ‘Guru Granth Sahib’, the holy book of Sikhs, highlighting his impact across different Indian religions. His simple yet profound verses continue to inspire and teach lessons of unity, peace, and devotion, making him a revered figure in Indian literature and spirituality.
Kabir Das, a revered poet and saint from the 15th century, played a pivotal role in Ind
ia’s Bhakti movement. With no formal education, Kabir still emerged as a profound thinker, expressing his thoughts through simple but powerful verses known as ‘dohas’. His philosophy challenged the orthodox practices of both Hinduism and Islam, promoting a message of love, compassion, and the unity of all beings.
Kabir believed in the concept of an all-pervading God and criticized the caste system, emphasizing the equality of all humans. His works, which blend elements of various faiths, advocate for a direct, personal connection with the Divine, bypassing rituals and ceremonies. Kabir Das’s teachings, which stress on moral integrity and the importance of a guru in one’s life, continue to be relevant and are studied across schools in India, teaching students about tolerance, unity, and spiritual awareness.
Kabir Das, a luminary in Indian literature and spirituality, illuminated the world with his timeless wisdom during the 15th century. His poetry, a blend of devotion and philosophy, resonates across generations, fostering deep contemplation and spiritual growth. In the academic sphere of India, Kabir’s works hold a revered position, enriching students’ understanding of cultural heritage and spiritual values.
His verses, often sung as bhajans, delve into the essence of humanity, advocating for love, compassion, and unity. Through his writings, Kabir addressed societal issues, promoting harmony and tolerance. In school curricula, Kabir’s poetry serves as a gateway to exploring the rich tapestry of Indian culture and ethos. His teachings transcend religious boundaries, offering solace and inspiration to people of all faiths.
Studying Kabir’s verses not only enhances academic knowledge but also cultivates empathy and inclusivity, vital for building a harmonious society. His profound insights into the human condition continue to guide seekers on the path of self-discovery and spiritual enlightenment. Kabir Das remains an enduring beacon of light, guiding students and scholars alike towards deeper understanding and inner peace.
Kabir Das was a 15th-century Indian mystic poet and saint, whose writings significantly influenced the Bhakti movement. Born in Varanasi, he was brought up in a family of Muslim weavers. Despite his humble beginnings, Kabir Das emerged as a prominent figure, advocating for equality, peace, and unity across diverse social groups.
His poetry, known for its simplicity and depth, was composed in vernacular Hindi and widely accessible to the common people. Kabir’s verses, often called ‘dohas,’ challenge the rituals and orthodox beliefs of both Hinduism and Islam, promoting a universal god that transcends religious boundaries.
Kabir Das’s teachings emphasized the importance of a personal, direct relationship with God, bypassing the traditional clergy and rituals. He advocated for a life of simplicity, honesty, and devotion, which resonated with many across the subcontinent. His work contributed to laying the groundwork for the later Bhakti movement, which sought to democratize religious practices and make spiritual experience available to everyone, regardless of caste or creed.
Today, Kabir’s poetry is celebrated for its philosophical depth and universal appeal. His dohas continue to inspire and teach lessons of unity, love, and the essence of inner purity. Kabir Das’s life and teachings hold a special place in Indian culture, serving as a bridge between various religious and social groups, promoting harmony and understanding in a diverse society.
Kabir Das, a legendary figure in Indian literature and philosophy, was a 15th-century saint and poet whose work has left an indelible mark on the Indian spiritual landscape. Born in Varanasi to a family of weavers, Kabir’s early life is shrouded in mystery, yet his teachings have transcended time and cultural boundaries. He was an influential proponent of the Bhakti movement, advocating for direct communion with God through devotion and singing His praises, which challenged the prevailing religious orthodoxy of his time.
Kabir’s poetry, characterized by its pithy couplets or ‘dohas,’ addressed the essence of life and the universality of God. He criticized the ritualistic and superficial practices prevalent in both Hinduism and Islam, emphasizing instead the importance of inner purity and the realization of God within one’s self. Kabir’s verses often used metaphors and simple language to express profound spiritual concepts, making them accessible to the common people and not just the educated elite.
His philosophical teachings encouraged unity among all human beings, transcending religious and social divisions. Kabir Das’s influence extended beyond his lifetime, inspiring many subsequent poets and saints in the Bhakti and Sufi traditions. His works were incorporated into the Guru Granth Sahib, the holy scripture of Sikhism, signifying his widespread acceptance and reverence.
Kabir Das’s legacy is a testament to the enduring power of love, compassion, and devotion. His teachings continue to inspire millions of people across the globe, promoting a message of peace, equality, and the oneness of humanity. In today’s fragmented world, Kabir’s poetry offers a beacon of hope and a path towards universal brotherhood and understanding. His life and works are a rich part of India’s cultural heritage, cherished by people of all backgrounds.
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February 7, 2024 by Prasanna
Paragraph On Kabir Das: Saint Kabir Das was one of the well-known saints of India. He is respected by both Muslim, Sikh, and Hindu religious groups. He was an Indian saint and considered as the essential saint in India. Saint Kabir Das was referred to a great writer and poet. Check out this article to know more about Saint Kabir Das.
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Saint Kabir Das was one of the great poets. He was also referred to as a spiritual leader all over India. It is believed that he was raised by the Jolaahas couple. His mother’s name was Neema, and his father’s name was Neeru. He was about in the century of 15th.
It was said that Saint Kabir Das brought a renaissance in spiritual development. Also, it is referred to as the Bhakti Movement development. Saint Kabir Das is the most respected saint in India, and he is not only respected by Hindus but also Islam and Sikhism. The word ‘Kabir’ came from the Islamic word, and it means great. He spent some of his early years in a Muslim family. He was highly inspired by his teacher named ‘Saint Ramananda’.
Saint Kabir Das was a great spiritual poet in India. He lived in Varanasi. Saint Kabir Das got credit for the development of the Bhakti Movement. Saint Kabir Das is also respected by Sikh and Islam group people. One of the most interesting things about Saint Kabir Das is that he is admired by Muslim, Hindu, and Sikh communities. Also, it is believed that Saint Kabir Das was fond of Muslim and Hindu religions. Thus, Kabira used to wear sacred threads.
A Johaalas family was brought, Saint Kabir Das. He has written Dohavali and Dohas. There is a community named Kabir Panth, who worships Saint Kabir Das ideologies. Also, they are great followers of Kabira. Some of his famous writings are Anurag Sagar, Sakshi Granth, Brijak, and many more. Kabira met his Guru on the bank of the Ganges river.
His Dohas are considered as religious writings. The ideologies and the wordings of his writings are based on the spiritual and social path. People used to worship Saint Kabir Das as the Spiritual Guru. The followers devote him.
Saint Kabir Das was one of the highly respected saints of India. His writings are considered as social and spiritual lessons for everyone. Saint Kabir Das was a great supporter of the concept of ‘Parmatma’ and ‘Jivatma’. He made a point on the universal path of faith for his followers. According to his ideologies and sayings, Every life living on earth has a relationship based on two theories. They are:
He also said that Moksha could be succeeded when the theories mentioned above unite. One of his writings, Birjak, was a collection of poems based on Spirituality’s view. It is believed that he used to talk about the oneness of God. Saint Kabir Das’s philosophies were written in simple language, Hindi. His ideologies were based on the religious path.
Saint Kabir Das was a great poet. He is still respected, and his legacy still continues. He is worshipped by Muslim, Sikh and Hindu communities. His ideologies of God inspired almost thousands of people in India. The followers of Kabir Das followed his philosophies and believed the concept of Spirituality that was shown by him. Saint Kabir Das’s poems and Dohas are translated into many languages.
Kabir Das’s poems are divided into three categories. They are:
Kabir Das got credit for Bhakti Movement in India. He always believed equality in all the communities in society. Kabir Das used to talk about God, and he always supports God. It is believed that he said, God is the supreme power for everyone.
Kabir Das never attended school and never got an education. He was a self-made person and discovered everything on his own. However, he was the master of Brij, Avadh, and Bhojpuri. His poems were written in a mixture of all these languages. Also, he followed the simple writing technique. His poems are a part of the Academic syllabus in educational institutions.
Saint Kabir Das’s poems were also translated in English by Rabindranath Tagore. His followers still follow his legacy. These followers founded thousands of years ago after the death of Kabir Das. It is believed that he said Truth is the Ram, the person who is beloved as Maryada Purshottam. Also, there are almost 10 million Kabir Panthis.
Saint Kabir Das got his Spiritual training from his Guru. He became a famous disciple of Guru Ramananda. Kabir got a reputation all over the world. He was famous for his inspirational traditions and cultures. The house of Saint Kabir Das has accommodated students for a living.
Question 1. What is Kabir Das is still respected for?
Answer: Kabir Das is also known as Kabira. He was born in the year 1440 and brought by my weavers family couple named Neeru and Neema. Kabir Das was a great poet. He was one of the most crucial saints of Hindusim. He is still respected by Hindus, Sikh, and Muslim communities.
Question 2. What is the main philosophy of Saint Kabir Das?
Answer: His Dohas and poems are based on the concept of the Bhakti Movement. It is referred to as Spiritual development. He always believed that God is the supreme power for every living being in the world.
Question 3. Who was the Guru for Saint Kabir Das?
Answer: Saint Kabir Das got Spiritual training from his Guru Ramananda. Thus, he became one of the well-known disciples of Guru Ramananda.
Question 4. What religion is Kabir Das?
Answer: Kabir Das was a great saint of India. His writings inspired everyone in India. He is respected by Muslim, Sikh and Hindu communities. He spent his early life in a Muslim family. It is said that he was brought up by a Johaalas couple.
कबीरदास ने अपना सारा जीवन ज्ञान देशाटन और साधु संगति से प्राप्त किया
Explanation:
ऐसा माना जाता है की सन् 1398 ई में कबीर दास जी का जन्म काशी के लहरतारा नामक क्षेत्र में हुआ था। कबीर दास जी हमारे भारतीय इतिहास के एक महान कवि थे, जिन्होंने भक्ति काल में जन्म लिया और ऐसी अद्भुत रचनाएँ की, कि वे अमर हो गए। इन्होंने हिन्दू माता के गर्भ से जन्म लिया और एक मुस्लिम अभिभावकों द्वारा इनका पालन-पोषण किया गया। दोनों धर्मों से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने किसी धर्म को वरीयता नहीं दी और निर्गुण ब्रह्म के उपासक बन गए। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव मूल्यों की रक्षा और मानव सेवा में व्यतीत कर दी।
कबीर दास जी का जीवन
इनका जीवन शुरू से ही संघर्षपूर्ण रहा है, जन्म किसी ब्राह्मण कन्या के उदर से लिया और उसने लोक-लाज के डर से इन्हें एक तालाब के पास छोड़ दिया। जहाँ से गुजर रहे एक जुलाहे मुस्लिम दंपति ने टोकरी में इन्हें देखा और इन्हें अपना लिया। और अपने पुत्र की तरह इनका पालन-पोषण किया।
Short essay on kabir das in hindi language
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a short essay on kabir das (100-150 words) in hindi.
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इन्होंने बहुत अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त की, परन्तु शुरू से ही साधु-संतों के संगत में रहे और इनकी सोच भी बेहद अलग थी। वे शुरू से हमारे समाज में प्रचलित पाखंडों, कुरीतियों, अंधविश्वास, धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचारों का खंडन और विरोध करते थे, और शायद यही वजह है की इन्होंने निराकार ब्रह्म की उपासना की। इनपर स्वामी रामानंद जी का बेहद प्रभाव था।
इतिहास गवाह है, की जब-जब किसी ने समाज में सुधार लाने की कोशिश की है तो उसे समाज दरकिनार कर देती है और केवल उन्हीं नामों को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुए हैं जो समाज से बिना डरे अपने इरादों में अडिग रहे। कबीर दास जी के भजन और दोहे आज भी घर-घर में बजाये जाते हैं और यह प्रदर्शित करता है की वे अपने आप में एक बहुत बड़े महात्मा थे।
Hindi Diwas 2024 Essay in Hindi: इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हिंदी भाषा भारतीयों की पहचान का हिस्सा है। भारत में यूं तो कई भाषाएं और बोलियां बोली जाती है लेकिन जो दर्जा हिंदी को मिला है वो अहम है। भाषाई विविधता के जश्न के रूप में प्रति वर्ष हिंदी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता है। यह दिन हमारे देश की मातृभाषा हिंदी के महत्व को समझाने और उसे सम्मानित करने के लिए मनाया जाता है।
हिंदी हमारी पहचान है और करोड़ों भारतीयों को इस पर गर्व है। हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा 14 सितंबर 1949 को मिला था। इसलिए इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी न केवल भारत में बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों में भी बोली जाती है। हमारे विद्यालयों में भी हिंदी दिवस के अवसर पर कई कार्यक्रम आयोजित होते हैं, जैसे निबंध लेखन, कविता पाठ, भाषण और अन्य प्रतियोगिताओं का विशेष रूप में आयोजन किया जाता है।
बच्चों को हिंदी भाषा के महत्व और उसकी सुंदरता को समझाने के लिए यह दिन विशेष होता है। इस अवसर पर स्कूलों में विभिन्न प्रतियोगिताएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम, निबंध लेखन और भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यदि आप भी स्कूल में हिंदी दिवस पर निबंध लेखन प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हैं तो इस लेख से संदर्भ ले सकते हैं।
इस लेख में स्कूली बच्चों की सहायता के लिए 100, 250 और 500 शब्दों में हिंदी दिवस पर निबंध लेखन के कुछ प्रारूप प्रस्तुत किए हैं। इस लेख में तीन अलग-अलग हिंदी दिवस निबंध प्रारूप प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो स्कूली छात्रों को हिंदी दिवस के महत्व को समझाने में मदद करेंगे। स्कूली छात्रों के लिए हिंदी दिवस पर निबंध (Hindi Diwas Essay) नीचे दिये गये हैं। ये निबंध हिंदी दिवस के महत्व को सरल और स्पष्ट तरीके से समझाने में मदद करते हैं।
हिंदी दिवस 2024 पर 100, 250, 500 शब्दों में आसान निबंध प्रारूप नीचे दिये गये हैं-
हिंदी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। यह दिन हिंदी भाषा के महत्व के प्रचार एवं प्रसार के लिए मनाया जाता है। हिंदी हमारी मातृभाषा है और इसे हमें सम्मान देना चाहिये। भारत के करोड़ों लोग अपनी बोल चाल की भाषा में हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं। भारत में कई भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। इसका अर्थ है कि भारत सरकार ने कामकाज की भाषा के रूप में हिंदी को विशेष स्थान दिया है। हमें गर्व होना चाहिये कि हमारी एक समृद्ध और प्राचीन भाषा है, जिसे हम हिंदी कहते हैं। यह हमारे देश की पहचान है।
प्रति वर्ष 14 सितंबर को हम हिंदी दिवस मनाते हैं। हिंदी दिवस, हिंदी के महत्व को समझाने और उसे प्रचारित करने के लिए समर्पित है। हिंदी को 14 सितंबर 1949 को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला। हिंदी देश की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है और यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न अंग है। हिंदी न केवल भारत में बल्कि नेपाल, मॉरीशस, फिजी और अन्य देशों में भी बोली जाती है।
हिंदी दिवस पर स्कूलों और कॉलेजों में विशेष कार्यक्रमों का आयोजन होता है। स्कूलों, कॉलेजों एवं अन्य शिक्षण संस्थानों द्वारा छात्र-छात्राओं में हिंदी भाषा के प्रति जागरूकता को बढ़ाने के लिए हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी न केवल एक भाषा है, बल्कि यह हमारे देश की एकता और अखंडता का प्रतीक है। हमें हिंदी भाषा को गर्व से बोलना चाहिये और इसे और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए बढ़ावा देना चाहिये। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हमें सभी क्षेत्रों में इसे अपनाना चाहिये और इसके महत्व को समझना चाहिये।
हिंदी दिवस भारत में हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। यह दिन भारत की राजभाषा हिंदी के सम्मान और उसके महत्व को दर्शाने के लिए मनाया जाता है। हिंदी भाषा का इतिहास बहुत पुराना है और इसका भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान है। हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जो देश के अधिकांश हिस्सों में बोली और समझी जाती है।
हिंदी को 14 सितंबर 1949 को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया गया था। इसलिए इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य हिंदी को न केवल सरकारी कार्यों में बल्कि आम जीवन में भी अधिक से अधिक प्रयोग में लाना है। हिंदी दिवस पर कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों को हिंदी भाषा के प्रति जागरूक करना और उसकी उपयोगिता को बढ़ावा देना है।
आज के समय में अंग्रेजी भाषा का बढ़ता हुआ प्रभाव देखा जा सकता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हिंदी हमारी पहचान है। हमें गर्व होना चाहिये कि हम एक ऐसी समृद्ध भाषा बोलते हैं, जो हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करती है। हिंदी दिवस के उत्सव से हम यह समझने में सहायता मिलती है कि भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि यह हमारी संस्कृति, परंपरा और पहचान का प्रतीक है।
इसलिए, हमें हिंदी भाषा के महत्व को समझना चाहिये और इसे गर्व से बोलना चाहिये। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए हम अपने स्तर पर भी प्रयास कर सकते हैं। हम इसे अपने दैनिक जीवन में अधिक से अधिक उपयोग कर सकते हैं। हिंदी दिवस हमें यह प्रण लेना चाहिये कि हम अपनी हिंदी भाषा का सम्मान करेंगे और इसे आगे बढ़ाने में अपना भरपूर योगदान देंगे।
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