नई सदी में भारत – चीन संबंध पर निबंध | Essay on Indo-China Relationship in Hindi
नई सदी में भारत – चीन संबंध पर निबंध | Essay on Indo-China Relationship in Hindi!
आज भारत और चीन, जो कि विश्व की जनसख्या के एक-तिहाई भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं, की तुलना करने का एक चलन सा बन गया है । इन दो एशियाई महाशक्तियों के बीच अनसुलझा सीमा-विवाद परस्पर शत्रुता का मूल है ।
दोनों ही एक-दूसरे के रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी हैं, क्योंकि राजनीतिक सोच के टकराव और रणनीतिक उद्देश्यों के चलते दोनों ही एक-दूसरे पर संदेह करते हैं । हाल ही में दक्षिणी चीन सागर में बढ़ती रुचि पर चीन के एतराज एवं दलाई लामा के मुद्दे पर भारत के कठोर रवैये के कारण दोनों देशों के संबंधों में एक बार फिर से कड़वाहट दिखने लगी है ।
हालांकि नई दिल्ली और बीजिंग दोनों ही ने शांतिपूर्ण कूटनीतिक माहौल तैयार कर और उसे बरकरार रखने की पहल की है । इसी पर इन दोनों का आर्थिक उदारीकरण और सुरक्षा निर्भर करती है । यद्यपि दोनों देशों को बांटने वाले मुद्दों को सुलझाने की दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है । द्विपक्षीय संबंधों को मुख्यत: तीन मसले प्रभावित करते हैं-सीमा विवाद, तिबत और व्यापार ।
इनमें से दो मसले जस के तस हैं, लेकिन तीसरा, चीन के पक्ष में सर्वाधिक फल-फूल रहा है । वर्ष 2000 के 23 बिलियन डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार में 20 गुना से ज्यादा की वृद्धि हुई है । आज दोनों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 40 बिलियन डॉलर के कडे को पार कर गया है ।
ADVERTISEMENTS:
चीन आज भारत से 15 बिलियन डॉलर के व्यापार की बढ़त पर है । इसकी एक प्रमुख वजह शायद चीन के अघोषित अवरोध हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के भारतीय साँपटवेयर और फार्मास्युटिकल्स कंपनियों को रोक रखा है । चीन की बढ़त व्यापार
अमेरिका, यूरोप और भारत के साथ है । शेष विश्व के साथ उसका व्यापार घाटे का ही है । इस लिहाज से यदि चीन का भारत के साथ व्यापार बढ़त भारत-अमेरिका व्यापार से अधिक हो जाता है तो नई दिल्ली और बीजिंग को एक बार फिर राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग करने लगेंगे ।
सामरिक अनुरूपता के अभाव में घोषित शांति और समृद्धि के लिए भारत-चीन की सामरिक और सहयोगात्मक साझेदारी मुद्दा विहीन ही कही जाएगी । गौर करें कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की वर्ष 2010 में की गई चीन यात्रा में विवादास्पद मुद्दों पर कोई सीधी बातचीत नहीं हुई । अलग-अलग कारणों से भारत-चीन ने सार्वजनिक तौर पर परस्पर सहयोग पर ही जोर देना उचित समझा ।
कड़वी सच्चाई तो यही है कि बीजिंग नियंत्रण रेखा को स्पष्ट करने को तैयार नहीं है । ऐसा करने पर भारत पर सैन्य दबाव कम होगा । नतीजतन 27 वर्षों से सीमा को लेकर लगातार चल रहे संवाद के बावजूद विश्व में भारत और चीन केवल ऐसे पडोसी हैं जो परस्पर निर्धारित नियंत्रण रेखा से विभाजित नहीं होते ।
सच्चाई यह है कि विश्व इतिहास में दो देशों की सबसे लंबी चली वार्ताओं के निष्फल रहने के लिए काफी हद तक चीन जिम्मेदार है क्योंकि उसके द्वारा गलत तरीके से जम्यू-कश्मीर के पाँचवे भाग पर किए गए कब्जे को वह वार्ता का विषय नहीं बनाना चाहता ।
बल्कि वह तवांग घाटी को अपने भू-भाग में शामिल करने के लिए, जो कि सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण गलियारा है, भारत से अपनी सीमाओं के पुन: सीमांकन की माँग कर रहा है । चीन निःसंकोच इस नियम पर चल रहा है कि जो कुछ उसने कब्जा लिया है उस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता पर जिन क्षेत्रों पर उसका दावा है केवल उसी के संबंध में वार्ता की जा सकती है ।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि चीन और भारत के संबंधों में कुछ तनाव दिखाई दिए । इस तरफ ध्यान देना आवश्यक है कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सीमा में चीनी सेना द्वारा घुसपैठ की 500 से अधिक वारदातें हुई हैं । कुछ महीने पहले चीन के एक सैन्य अभियान में भारतीय बकरों को ढहाने की उतेजनापूर्ण कार्यवाही की गई । चीन के विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री को एक संदेश भेजकर इस बात को स्पष्ट किया कि बीजिंग सीमा संबंधी किसी व्यवस्था से इस क्षेत्र के निवासियों को परेशान नहीं होने संबंधी सहमति से बंधा नहीं है ।
बीजिंग के इस अड़ियल रवैये के पीछे मुख्यत: दो कारण नजर आते हैं । पहला, आर्थिक और सैन्य ताकत के तौर पर उभार ने बीजिंग को आक्रामक विदेश नीति अपनाने को प्रेरित किया है । दूसरे, तिब्बत में ढाँचागत सुविधाओं के विस्तार के साथ ही चीन ने भारत के खिलाफ तेजी से सेना की तैनाती की क्षमता हासिल कर ली है ।
यहाँ तक कि तेजी से बड़े द्विपक्षीय व्यापार में भी एक समानता देखने में आई है । बीजिंग मुख्यत: लौह अयस्क और अन्य कच्चा माल भारत से ले रहा है और बदले में औद्योगिक उत्पाद भारत को बेच रहा है और बढ़त व्यापार की अच्छी फसल काट रहा है । इसके बदले में भारत अधिक-से-अधिक चीनी उत्पादों का आयात कर रहा है । यही तक कि स्टील ट्यूब और पाइप के क्रम में वह चीन पर एक तरह से निर्भर हो कर रह गया है ।
मिसाल के तौर पर चीन के पास लौह अयस्कों का प्रचुर भडार है जो भारत से काफी ज्यादा है बावजूद इसके वह दुनिया में लोहे का सबसे बडा आयातक है, जो वैश्विक आयात का एक-तिहाई ठहरता है । चीन के लौह-अयस्क के आयात का एक-चौथाई भाग तो सिर्फ भारत से ही आता है, जिसमें से यह निर्मित टयूब्स और पाइप्स बनाकर बेचता है ।
आज जबकि दोनों उभरती महाशक्तियां अपनी उच्च जीडीपी विकास दर पर मुद्रित हैं, उनके उत्थान का आधार अलग है । मसलन भारत के आयुध क्षमता की रेंज उपमहाद्वीप तक ही सीमित है जबकि चीन की क्षमता अंतरमहाद्वीपीय है । यहाँ तक कि जब चीन गरीब और पिछडा हुआ था, तब भी इसने राष्ट्रीय ताकत बढाने पर सबसे ज्यादा जोर दिया ।
इसके उलट नई दिल्ली अभी तक अपनी आईसीबीएम को विकसित करने का कार्यक्रम शुरू नहीं कर सकता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के तहत अपनी ताकत और क्षमता दर्शाने के लिहाज से ये बैलेस्टिक मिसाइलें महत्वपूर्ण प्रतीक है ।
वैश्विक ताकत बनने के अपनी महत्त्वाकाक्षा को सबल देने के लिए भारत को ऐसी सैन्य क्षमता विकसित करने की जरूरत है जिसका प्रभाव अपने क्षेत्र से बाहर तक हो । हालांकि इसकी नौसेना पहले ही दूर-दूर तक अपनी छाप छोड चुकी है । हमारे देश पर चीन तीन अलग-अलग रास्तों के जरिए सामरिक दबाव बढा रहा है । यह देखते हुए कि चीन समझौते के लिहाज से क्षेत्र में यथास्थिति बरकरार रखने का इच्छुक नहीं है, भारत को ज्यादा यथार्थवादी, नवीनीकृत और कारगर सोच अपनानी होगी|
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भारत-चीन संबंध पर निबंध। Essay on India-China Relations in Hindi
हालांकि, इन संबंधों में कई चुनौतियाँ भी हैं। सीमाबद्ध के मुद्दे, व्यापारिक विवाद और राजनीतिक विभिन्नताएं केवल कुछ मुद्दों में से कुछ हैं। सुखद संबंधों की बजाय, समय-समय पर तनाव भी उत्पन्न होता रहा है।
बौद्ध भिक्षु फाहियान (४०५-४११) और चीनी यात्री हेनसाग (६३५-६४३) ने भारत जाने का सफर किया था। सातवीं सदी में हम्बली और इतिसंग नामक चीनी यात्री भी भारत आए थे। इसके अलावा, कई तिब्बती और चीनी यात्री भी भारत गए थे, जिससे दोनों देशों के धार्मिक और सामाजिक संबंध मजबूत हुए।
भारत-चीन के संबंध
दो पड़ोसी और विश्व में दो उभरती शक्तियाँ हैं जो एक दूसरे के पास स्थित हैं। इन दोनों के बीच एक लम्बी सीमा रेखा है।
इन दो देशों के बीच प्राचीन समय से ही सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार भारत से चीन में हुआ है। चीनी लोगों ने प्राचीन काल से ही बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत के विश्वविद्यालयों को चुना था, जैसे कि नालन्दा विश्वविद्यालय और तक्षशिला विश्वविद्यालय, क्योंकि उस समय ये दो विश्वविद्यालय शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र थे। उस समय यूरोप के लोग जंगली हालत में थे।
हालांकि 1946 में चीन में साम्य वादी शासन आया, लेकिन दोनों देशों के बीच दोस्ताना संबंध बरकरार रहे। भारत ने चीन के संघर्षों के प्रति विकासशील दृष्टिकोण दिखाया और पंचशील के माध्यम से सहमति भी दिखाई। 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद, भारत ने चीन के साथ आर्थिक संबंध स्थापित किए। इस प्रकार, भारत ने चीन को पहला गैर-समाज वादी देश मान्यता दी।
भारत – चीन के बीच का इतिहास
1954 के जून माह में, चीन, भारत, और म्यानमार ने पंचशील के पांच सिद्धांतों का पालन किया, जो शांति और सहयोग के मामलों में महत्वपूर्ण थे। पंचशील ने चीन और भारत द्वारा दुनिया की शांति और सुरक्षा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया, और आज तक यह सिद्धांत दोनों देशों की जनता के दिलों में है।
इन सिद्धांतों में, दोनों देशों ने एक-दूसरे की स्वराज्य और भू-अखण्डता का सम्मान किया, आक्रमण का प्रतिषेध किया, आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया, और समानता और साझा लाभ के आधार पर शांति और सह-संबंध बनाए रखने का प्रति ज्ञान किया।
- हालांकि, चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया और उसने भारत की कई भूमि पर कब्जा किया, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया।
- जनवरी 1980 से, चीन ने थोड़ी राहत का संकेत दिया, जिससे भारत-चीन सम्बंधों में सुधार की आशा उम्मीद की जा सकती है।
- 1998 में, दोनों देशों के बीच फिर से तनाव उत्पन्न हुआ, जब भारत ने परमाणु परीक्षण किए। इसके बाद चीन ने भारत की उपेक्षा की और उसने पाकिस्तान के साथ मिलकर एन०पी०टी० और सी०टी०बी०टी० पर सहमति दी।
- 1998 के बाद, दोनों देशों के सम्बंध फिर से सुधारे और 2000 में उन्होंने एक समझौता किया जिसके तहत वे ताकत की अविशिष्ट क्षेत्रों में संयम बनाए रखने की प्रतिज्ञा की।
भारत – चीन के बीच विवाद का इतिहास
1998 में, चीन और भारत के बीच फिर से तनाव बढ़ गया। 11 से 13 मई 1998 के बीच, भारत ने पांच परमाणु परीक्षणों की प्रक्रिया को पूरा करके खुद को एक परमाणु शस्त्र धारक देश के रूप में घोषित किया। इस दौरान, भारत के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को भारत का सबसे बड़ा शत्रु बताया था, जिससे चीन की मानसिकता में एक अचानक परिवर्तन आया। चीन ने अमेरिका और अन्य देशों के साथ मिलकर एन०पी०टी० और सी०टी०बी०टी० के साथ सहमति दी और भारत को इस पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला।
5 जून 1998 को, चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा परीक्षण बंद करने का प्रस्ताव पास किया, शस्त्र विकास कार्यक्रम बंद किया, और सी०टी०बी०टी० और एन०पी०टी० पर हस्ताक्षर करने का सुझाव दिया। जुलाई 1998 में, एशियान रीजनल फोरम की बैठक में, विदेश मंत्री जसवंत सिंह और चीन के विदेश मंत्री तांग जियाशं के बीच चर्चा हुई और उन्होंने उच्च सरकारी संवाद को जारी रखने का निर्णय लिया।
अक्टूबर 1998 में, चीन ने अटल बिहारी वाजपेयी की चीन के विरुद्ध तिब्बत-कार्ड के रूप में एक मुलाकात की आलोचना की और भारत ने सम्बंधों में मिठास लाने के लिए 1996 में एक मन्त्रालय स्तरीय प्रतिनिधि मण्डल की बैठक आयोजित की। चीन ने इसे सकारात्मक और प्रगतिशील दृष्टिकोण का नाम दिया।
इस प्रकार, चीन और भारत के बीच संबंधों में समय-समय पर तनाव और सुधार आये हैं, लेकिन ये दोनों देश आपसी सहमति के माध्यम से समस्याओं का समाधान ढूंढते रहते हैं।
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मोदी सरकार में भारत-चीन के संबंध
2014 में, जब नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने, तो पूरे देश में उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। लोगों को उम्मीद थी कि उन्हें चीन और पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने में मदद मिलेगी। मोदी ने शुरुआत में सभी पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए काफी प्रयास किए। उन्होंने चीन के राष्ट्रपति को सितम्बर 2014 में अहमदाबाद में बुलाया।
उनके द्वारा किए गए प्रयासों से लगा कि दोनों देशों के बीच के संबंध में सुधार होगा। उनकी इस यात्रा के दौरान बेहद महत्वपूर्ण मामलों पर हस्ताक्षर किए गए, जैसे कि कैलाश मानसरोवर यात्रा के नए मार्ग और रेलवे में सहयोग। इसके साथ ही, दोनों देशों ने क्षेत्रीय मुद्दों और चीन के औद्योगिक पार्क से संबंधित समझौतों पर हस्ताक्षर किए। हालांकि इसी दौरान चीन के सैन्य ने जम्मू कश्मीर के चुमार क्षेत्र में घुसकर विवाद को बढ़ावा दिया था। भारत ने इस मुद्दे को उठाया, लेकिन वार्ता में कोई बड़ी समस्या नहीं आई।
2017 के जून में डोकलाम सीमा विवाद के कारण फिर से दोनों देशों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ, और यह तनाव लगभग 73 दिनों तक चला। ध्यान देने योग्य है कि डोकलाम भारत-भूटान और चीन की सीमा पर होने वाले विवाद के संबंध में है।
भारत – चीन के बीच डोकलाम सीमा विवाद
डोकलाम के एक हिस्से में भारतीय सीमा पास है, जहां चीन एक सड़क बनाना चाहता है। भारतीय सेना ने इस सड़क के निर्माण के खिलाफ विरोध किया। भारत की चिंता यह है कि इस सड़क के निर्माण से हमारे पूर्वोत्तर राज्यों को चीन के पास आने वाले “मुर्गी की गरदन” के इलाके का संकेत हो सकता है। चीन ने अपने हिसाब से इसे खुद के इलाके में सड़क बताया और उन्होंने भारतीय सेना पर “अतिक्रमण” का आरोप लगाया।
चीन का कहना था कि भारत को 1962 की युद्ध में हार की याद दिलानी चाहिए। वे भारत को यह भी समझाते थे कि वे पहले भी शक्तिशाली थे और अब भी हैं। उसके बाद भारत ने कहा कि वर्तमान में स्थिति अलग है और चीन को इसका समय समझना चाहिए।
इस विवाद के कारण चीन ने भारत से कैलाश मानसरोवर यात्रियों को मानसरोवर जाने से रोक दिया, लेकिन बाद में उन्होंने भारत के हिमाचल प्रदेश के मार्ग से 56 हिंदू यात्रियों को मानसरोवर जाने की अनुमति दे दी। डोकलाम के मामले में भारत और चीन के बीच तनाव लगभग दो महीने तक बढ़ता रहा, लेकिन आखिरकार विवाद समाप्त हो गया।
भारत – चीन कूटनीतिक/व्यापार सम्बन्ध
चीन और भारत के बीच बहुत सारे पैसे के व्यापार का होता है। 2008 में चीन भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साथी बन गया था। 2014 में चीन ने भारत में 116 बिलियन डॉलर की निवेश की थी, जो बाद में 2017 में 160 बिलियन डॉलर हो गई। 2018-19 में भारत और चीन के बीच व्यापार की मात्रा 88 अरब डॉलर थी। यह बड़ी बात है कि पहली बार भारत ने चीन के साथ व्यापार में घाटा 10 अरब डॉलर से कम करने में सफलता पाई।
वर्तमान में चीन भारत के तीसरे सबसे बड़े निर्यात बाजार के रूप में है। वहीं चीन से भारत सबसे ज्यादा माल आयात करता है और भारत चीन के लिए महत्वपूर्ण व्यापारिक बाजार है। चीन से भारत इलेक्ट्रिक उपकरण, मैकेनिकल सामान, कार्बनिक रसायन आदि खरीदता है। वहीं भारत से चीन को खनिज ईंधन और कपास आदि बेचता है।
भारत में चीनी टेलिकॉम कंपनियाँ 1999 से काम कर रही हैं और उनसे भारत को भी फायदा हुआ है। चीनी मोबाइल्स का बाजार भी भारत में बड़ा है। चीन दिल्ली मेट्रो के निर्माण में भी शामिल है। भारत में चीनी सोलर प्रोडक्ट्स का बाजार भी महत्वपूर्ण है। व्यापार में भारत चीन की मदद से बड़े हिस्से पर निर्भर है, जैसे कि थर्मल पावर के लिए जो उत्पाद चीन से आते हैं।
2018 में भारत ने चीन के सॉफ़्टवेयर बाजार के लाभ उठाने के लिए वहां एक सूचना प्रौद्योगिकी गालियारे की शुरुआत की। आईटी कंपनियों के संगठन ने बताया कि चीन में दूसरे डिजिटल सहयोग पूर्ण सुयोग प्लाजा के साथ घरेलू आईटी कंपनियों की पहुंच बढ़ गई।
भारत और चीन के संबंधों का विषय एक व्यापारिक और राजनीतिक महत्वपूर्ण विषय है। ये दोनों देश विभिन्न दृष्टिकोणों से संबंधित हैं – एक ओर व्यापार और आर्थिक सहयोग, वहीं दूसरी ओर सीमा विवाद और राजनीतिक मुद्दों के संदर्भ में तनाव।
व्यापार के मामले में, चीन और भारत के बीच का व्यापार अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन दोनों देशों के बीच करीब 2014 में एक नया व्यापारिक संदर्भ तय हुआ था, जिसने उनके आर्थिक संबंधों को मजबूत किया। चीन ने भारत में बड़े निवेश किए और व्यापार में बढ़ोतरी हुई। हालांकि, राजनीतिक और सीमा संबंधों में अक्सर तनाव रहता है, जैसे कि डोकलाम विवाद का मामला।
इसके अलावा, भारत और चीन के बीच क्षेत्रीय और वैशिष्ट्यक मुद्दों पर सहमति प्राप्त करने की कोशिशें भी दिखाई दी है। ये मुद्दे विज्ञान और प्रौद्योगिकी, वाणिज्य विचारधारा, और क्षेत्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में होते हैं। चीन और भारत के संबंधों में उभरते मुद्दों का संयम और विशेषज्ञता से समाधान करने का प्रयास किया जा रहा है।
निष्कर्ष में, भारत और चीन के संबंध एक संयमित, उद्यमी, और सहयोग पूर्ण दिशा में विकसित होने की कोशिश कर रहे हैं। यह दोनों देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक महत्वपूर्ण संबंधों के साथ-साथ राजनीतिक मुद्दों को भी संभालने का प्रयास कर रहे हैं। यह आवश्यक है कि दोनों देश सहमति, सूझबूझ, और सामर्थ्य के साथ मिलकर संबंधों को मजबूती दें और उनकी सामर्थ्य शाली भविष्य की दिशा में कदम बढ़ाएं।
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भारत-चीन संबंध निबंध: Essay on India China
भारत-चीन संबंध हिंदी में निबंध .
India-China relations: New rose on the grave of history full essay in hindi / भारत-चीन संबंध पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019
शंका और संभावनाओं से आच्छादित क्षितिज
भारत के वैदेशिक संबंधों में सर्वाधिक शंकास्पद और रहस्यमय किंतु संभावनाशील और दूरगामी प्रभावक है तो भारत-चीन संबंध। इसको लेकर अलग-अलग अटकलें हैं और अलग-अलग आकलन किसी के अनुसार यह चीन के साथ अपने संबंधों का समर्पण करते हुए नेहरू के पंचशील सिद्धांतों के बखान की पुनरावृत्ति है तो किसी के अनुसार एक-ध्रुवीय अमरीकी वर्चस्व को नियंत्रित करने के लिए रूस-चीन-भारत द्वारा एक दूसरा महाशक्ति केंद्र बनाने की प्रक्रिया कोई इस शताब्दी को एशियाई शताब्दी बनाने का प्रयास कहता है तो कोई इतिहास के सैन्य संघर्ष के बोझ को हटाकर की जानेवाली भारत-चीन की नई आर्थिक जुगलबंदी। बहरहाल दोनों देशों के बीच सीमा-विवादों के चलते 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के अंतर्गत हुए 10 समझौते और साझे घोषणा-पत्र को न केवल भारत और चीन की 2.36 अरब जनता कुल विश्व की 40% जनता ने शका और औत्सुक्य से देखा है बल्कि अमेरिका, यूरोप और पाकिस्तान सहित शेष विश्व ने भी कौतुक भरी दृष्टि से निहारा है। इसके बाद मनमोहन सिंह की दो सरकारों ने भी उसी दिशा में चीन के साथ के संबंधों को व्यापारिक प्रगाढ़ता की ओर ही उन्मुख किया है।
कटु इतिहास के दर्द का एहसास
चीन का तिब्बत पर 1949 में हमला और फिर पंचशील सिद्धांतों तथा ‘ हिंद-चीन भाई-भाई’ के नारों के उद्घोष के बावजूद 1962 में चीन का भारत पर आक्रमण अब तक भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के बड़े हिस्सों पर चीन का दावा जताना, सिक्किम के भारत में विलय की अस्वीकृति पाकिस्तान को विकसित नाभिकीय प्रौद्योगिकी तथा अन्य सैनिक सहायता देना। आतंकवादी संगठनों को सैन्य सहायता की सुविधाएँ जुटाना तथा भारत और चीन के सौहार्दपूर्ण संबंधों के मार्ग में वे विशाल हिमालयी ग्लेसियर हैं जिन्हें दोनों देशों के राजनीतिक विवेक की उद्दाम ऊष्मा ही पिघला सकती है किंतु क्या इतिहास की समझ यह नहीं कहती है कि दूध का जला छाछ फुक-फुककर पीता रहेगा तो फिर क्या वह हमेशा के लिए दूध से वंचित नहीं हो जाएगा।
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भारत-चीन संबंध: समान सामर्थ्य और चुनौतियां
भारत और चीन वर्तमान वैश्विक मंदी के दौर में भी लगभग 6% (भारत) से 9% (चीन) तक की दर से अर्थव्यवस्थाओं को विकसित कर सकने में सक्षम रहे हैं। विश्व को एक-तिहाई जनसंख्या वाले और 30 साल से कम आयु के 55% की विरा युवा-शक्ति वाले ये दोनों देश विश्व के बहुत विशाल उपभोक्ता क्षेत्र तो हैं ही मानव संसाधन की प्रबल शक्ति के हैं। दोनों देशों की अधिकतम आबादी कृषि-समृद्धि से जुड़ी हुई है तथा दोनों ही अमेरिका और यूरोप की औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं के शोषण-चक्र से बचने के लिए बेचैन हैं। दो ही देश श्रम-बहुलता को अधुनातन तकनीकी सामर्थ्य से संपन्न कर अर्थव्यवस्था के नए मॉडल प्रारूप विकसित करना चाहते हैं और भारत एवं चीन की दोनों ही प्राचीन संस्कृतियाँ विश्व की अन्य संस्कृतियों से भिन्न परंपरा और विकास के द्वंद्व को अपने-अपने ढंग से खेल रही हैं।
नई संभावनाओं की तलाश
भारत चीन से संरचनात्मक ढांचे के विकास, पूंजीनिवेश की तकनीक, कंप्यूटर हार्डवेआर उत्पादन तथा उत्पादन प्रक्रिया में किफ़ायत की प्रक्रिया को सीख सकता है तो चीन भारत से निजी उद्यमशीलता, कॉरपोरेट गवर्नेस, पूंजी बाजार की क्षमता, सॉफ्टवेअर दवा एवं रसायन उत्पादन आदि की तकनीक को प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी आदि यूरोपीय देशों के साझा बाजार की तरह भारत और चीन भी साझा बाजार बन सकते हैं तथा विश्व के 40% थे पड़ोसी उपभोक्ता इस प्रक्रिया से सीधे लाभान्वित हो सकते हैं। दोनों देशों के हित अनेक दृष्टियों से समान हैं इसलिए कानकुन सम्मेलन (सितंबर, 2003) की तरह विश्व व्यापार संगठन में विकासशील एवं अविकसित देशों को समन्वित और संगठित नेतृत्व देकर विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के शोषण से बच सकते हैं। वस्तुतचीन से स्पर्धा करने की बेमानी बहस के बजाय दोनों देशों की विशाल अर्थव्यवस्थाओं के आदान-प्रदान एवं अनुपूरकता की संभावनाओं को तलाशने की ज़रूरत है। दोनों देशों के बीच पर्यटन सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा बौद्ध-दर्शन की वे समान स्वर-लहरियाँ तो हैं ही जिनमें दोनों ही आनंदित होकर अपने पुराने इतिहास-दर्द को ग़म-ग़लत कर सकते हैं।
भारत में आतंकवाद हिंदी में निबंध
भारत-चीन संबंध: बढ़ते संबंधों में नया मोड़
वाजपेयी की चीन यात्रा से 2002-03 में व्यापार (आयात-निर्यात) 4.2 अरब डॉलर पहुँच गया। सितंबर2003 में भारतीय प्रधानमंत्री की चीन-यात्रा के दौरान चीनी प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ के बीच सीमा रास्तों से व्यापार बढ़ाने के साथ-साथ आपसी संबंधों को व्यापक बनाने वाला एक साझा घोषणा-पत्र भी जारी किया जिसमें सर्वोच्च शक्तिशाली देश अमरीका के कारण विश्व व्यवस्था पैदा हुए असंतुलन का पुनर्मूल्यांकन करना, आपसी सहयोग एवं संभावनाओं के साथ-साथ विश्वा शांति में ‘आसियान सिक्योरिटी फोरम’ में सहभागिता करना, संयुक्त नए संदर्भों राष्ट्र संघ की में उपजी भूमिका के मद्देनज़र काम करने की संभावनाएँ तलाशना, व्यापार संगठन ने तर्गत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक व तकनीकी विषमताओं समाप्त करना, द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के ही साथ भारत-चीन कार्यदल द्वारा सीमा -रेखा पर संतुलन बनाने के प्रयास करना, चीन-पाक के हथियार व्यापार पर विचार करना, सीमा विवाद को हल करने का यथासंभव प्रयास करना, तिब्बत व सिक्किम संदर्भ में व्यावहारिक व उचित कार्यवाही करना तथा विपक्षीय व्यापार के साथ आर्थिक व सहयोग पर विशेष बल देना प्रमुख रहा है। इसके बाद मनमोहन सिंह की चीन यात्रा तथा चीनी प्रधानमंत्रियों की यात्राओं से उक्त संबंधो में प्रगाढता आई है, विषेस रूप से दोनों देशो के बीच आर्थिक संबंधो में व्यापकता आई है।
सीमा-विवाद नहीं, व्यापार को प्राथमिकता
भारत-चीन संबंधों के सीमा-विवाद को कोने में टाँगकर फिलहाल आर्थिक संबंधों की जतन बिछाने की कोशिश की गई है। चीन ने भारत में संरचनागत विकास हेतु 50 करोड़ डॉलर के निवेश की इच्छा व्यक्त की थी, सिक्किम के पास नाथूला दर्रा से व्यापार करने तथा तिब्बत के रेगिनगौंग में भारतीय व्यापार चौकी स्थापित करने की स्वीकृति दी, व्यापारिक वीज़ा की अवधि बढ़ाई गई। चीन ने भारत से लौह-अयस्क, तंबाकू, जैव प्रौद्योगिकी के और अधिक आयात की संभावनाएँ जताई। 2008 में चीन में आयोजित हुए ओलंपिक खेलों के समय तक चीन भारत को सूचना प्रौद्योगिकी के हार्डवेअर को निर्यात करने तथा भारत से इस संबंध में सॉफ्टवेअर को आयात करने में पहल की। इस प्रकार भारत-चीन के बीच 2002-03 में 4.2 अरब डॉलर का हुआ व्यापार पिछले एक दशक कई गुना बढ़ गया। वस्तुतः अब दोनों देशों की व्यापारिक भुजा परस्पर जुड़ने को उठी हैं। यह व्यापार सँकड़े नाथूला दर्रा से बढ़कर व्यापक समुद्री मार्ग तक सघन हो गया है।
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भारत-चीन संबंध: उपसंहार
उदारीकरण के दौर में अमरीकी-यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के नव-आर्थिक से साम्राज्यवाद बचाव करने, अमरीका की एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था को नियंत्रित करने तथा भारत-चीन की 250 अरब जनसंख्या के आर्थिक-सांस्कृतिक हित में भारत-चीन के संबंधों में व्यापारिक दरें से ही सही नए राजनीतिक संबंधों के राजमार्ग की तलाश नए भविष्य की ऐतिहासिक आवश्यकता थी किंतु चीन से आशंका की नहीं सतर्कता की ज़रूरत है। 1962 की ठोकर के बाद उपजी 2012 तक की भारतीय सामरिक समृधि की यात्रा को चीन भी समझता है, उदारीकरण ने साम्यवादी चीन को व्यापारी चीन में बदला है, अतः इन बदली हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों दोनों को तैयार करने के लक्ष्यों को देखते हए पारंपरिक सैद्धांतिक रूढ़ता की बजाय कटु इतिहास की कब्र पर ‘पंचशील’ के साथ-साथ ‘अर्थशील’ के नये गुलाब उगाने चाहिए।
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Essay on indo china relationship in hindi भारत चीन संबंध पर निबन्ध.
Read an essay on Indo China relationship in Hindi language for students of class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Most recently asked question in exam was an essay on Indo China Relationship in Hindi. भारत चीन संबंध पर निबन्ध।
Essay on Indo China Relationship in Hindi
Essay on Indo China Relationship in Hindi 700 Words
भारत की राजनैतिक सोच और उसकी विदेश नीति की दिशा और दशा कुछ इस प्रकार निर्धारित की गई है कि वह अपने मित्र देशों के साथ-साथ अन्य तटस्थ अथवा अमित्र देशों को भी एक जैसे सम्मान और समानता का दर्जा देता रहा है। वस्तुतः हमने अपनी नीतियों को राजनैतिक-आर्थिक स्वार्थों और प्रतिर्पधाओं की भूमि पर विकसित और आधारित नहीं किया, और न प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कभी इस प्रकार की कोई चेष्टा ही होने दी। भारत एक ऐसा देश है जिसने अपनी राजनीति, अर्थनीति और समाज-नीति को गहरे सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों पर अवलंबित किया है। भारत की राजनैतिक-आर्थिक चेतना उसकी अति प्राचीन और मानवीय सांस्कृतिक चेतना का का ही विस्तार है। आज भी इससे कोई अपनी असहमति नहीं दिखला सकता है। संभवत: भारत की इस उदारता को हमारे कुछ पड़ोसी देश उसकी कमज़ोरी और निर्बलता का चिन्ह मानते रहे हैं। इनमें पाकिस्तान और चीन प्रमुख हैं। इन्होंने अपनी घृणित मानसिकता और गुण्डागर्दी का परिचय देते हुए भारतीय सीमा रेखा के आस-पास की हजारों किलोमीटर की ज़मीन अनाधिकारिक रूप से अधिग्रहित कर ली है और जब भारत सरकार की ओर से इसका विरोध किया गया तो अनावश्यक रूप से भारत पर युद्ध थोपे गए। आज तक एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जो यह सिद्ध करता हो कि भारत ने किसी अन्य पड़ोसी देश पर युद्ध थोपने का प्रयास किया हो।
सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। आकस्मिक रूप से पैदा हुई इस युद्ध की स्थितियों ने जहाँ एक ओर भारत की आर्थिक विकास की गति को धीमा किया, वहीं दूसरी ओर देश का अमूल्य धन युद्ध जैसी घृणित और विकृत स्थिति को संभालने तथा उससे राष्ट्रीय सम्मान को होने वाली हानि को रोकने हेतु पानी की तरह बहाना पड़ा। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही जिस विशिष्ट और महत्वपूर्ण जीवन-आदर्शों से युक्त राजनीति को ग्रहण किया गया था, उसमें सभी देशों के साथ पारस्परिक सौहार्द और सम्मिलित रूप से विकासयोजनाओं को कार्यान्वित करने पर बल दिया गया था। चीन भारत का एक ऐसा पड़ोसी देश है। जिसने सदैव भारत के प्रति वैमनस्य का भाव ही रखा है। 1962 का वह महाविनाशकारी युद्ध वस्तुत: उसी का परिणाम था।
जिस दिन वह युद्ध आरम्भ हुआ देश में एक अलग ही माहौल बन गया। सारा देश मानों राष्ट्रीय संकट एक समान रूप से महसूस कर रहा था। भारतीय समाज का प्रत्येक वर्ग इससे पूर्णत: चुका था। जो राजनैतिक दल कभी आपस में दुश्मनों की भांति लड़ा करते थे, वे एक मंच पर आ गए । सारा देश तन-मन-धन से इस आपदा से निबटने के लिए अर्पित कर देने के लिए तैयार था। गरीब से गरीब आदमी भी अपने हिस्से के धन को राष्ट्र-सेवा के लिए दे रहा था। हम उस संकट से भी वस्तुत: इसी कारण से उभर पाएं कि हमारा समस्त देश एकता के सूत्र में अचानक बंध गया और एकता जितनी बड़ी शक्ति होती है, उसकी तुलना किसी अन्य वस्तु से कभी भी नहीं की जा सकती।
चीन द्वारा सिक्किम पर अपना अधिकार घोषित कर देने के बाद ही युद्ध की यह अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी। तत्कालीन कांग्रेस सभापति संजीव रेड़ी ने कहा भी था – “हमारे देश पर आक्रमण हुआ है। शत्रु ने हमारे देश की 12000 वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया है । यह हमारे देश की विषम समस्या है और हमें इसका सामना करना है।” युद्ध भारत की प्रवृत्ति नहीं है, किन्तु यदि कोई अपनी उददंडता के चलते, हम पर आक्रमण करने का दुस्ससाहस करता है, अथवा हम पर अनावश्यक युद्ध थोपता है, तो उसका मुंहतोड़ जवाब हमें देना आता है। इतिहास गवाह है कि इस प्रकार के तीखे और तिलमिलाकर रख देने वाले ज़वाब हमें देने आते हैं। फिर वह पाकिस्तान जैसा अदना सा देश हो, या फिर चीन जैसा अपने आप को महान मानने वाले देश।
29 जून सन् 1967 को तत्कालीन रक्षा मंत्री ने कहा था: भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान जैसे अविश्वसनीय पड़ोसियों की साँठगाँठ का जबाब देने में पहले से अधिक समर्थ और सतर्क है। हम सशस्त्र हैं और हम पिछले वर्षों में खाली हाथ नहीं बैठे रहे। देश के गौरव और मर्यादा की रक्षा के लिए हमें और भी शक्ति संग्रह करना होगा, जिससे कोई भी शत्रु इधर आँख उठाकर भी न देख सके।”
वस्तुतः भारत द्वारा स्वयं को परमाणु-शक्ति संपन्न करना एक प्रकार की ऐतिहासिक मज़बूरी थी। किन्तु आज भी भारत पड़ोसी देशों के साथ मित्रता रखने का ही हामी है ताकि यूरोपीय देशों का एशिया पर दबाब ढीला पड़ सके। वैसे भारत-चीन संबंध वर्तमान समय में काफी बेहतर हुए हैं और इस दिशा में निरन्तर प्रयास भी हो रहे हैं।
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भारत-चीन संबंध : एक दृष्टि में
भारत और चीन को स्वतंत्रता लगभग थोड़े समय के अंतर पर ही प्राप्त हुई थी। चीन जहाँ ब्रिटिश परस्त च्यांग काई शेक के चंगुल से मुक्त हुआ वहीं भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद चीन जहाँ माओत्से तुंग की साम्यवादी विचारधारा वाला देश बन गया, वहीं भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया।
यद्यपि जनसंख्या तथा विशालता अर्थात क्षेत्रफल के आधार पर चीन का आकर-प्रकार भारत से बड़ा है लेकिन भारत भी उससे पीछे नहीं रहा। दोनों देशों की सभ्यताएं बहुत पुरानी हैं। भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध अत्यंत प्राचीन काल से ही रहे हैं। इतना ही नहीं, सबसे पहले बौद्ध धर्म का प्रभाव चीन पर ही पड़ा था। सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल एवं पुत्री संघमित्रा ने अनेक बौद्ध भिक्षुओं के साथ चीन की यात्रा की थी तथा वहां काफी समय तक रह कर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए वहाँ अनेक संघ भी स्थापित किए। 30-40 के दशक में चीन-जापान युद्ध चल रहा था, उस समय भारत ने चीन का नैतिक तथा आर्थिक समर्थन किया। यहाँ तक कि डॉक्टरों का एक सेवा दल भी घायलों का इलाज करने वहाँ गया था, जिसमें एक डॉक्टर कोटनीस और चीनी युवती की प्रेम कहानी आज भी अमर है। कहने का अर्थ यह है कि चीन – भारत के संबंध प्राचीन काल से ही बहुत अच्छे रहे हैं।
चीन की स्वतंत्रता के बाद जब वहां के प्रथम प्रधानमंत्री चाऊ-एन लाई भारत आए, तब उनका जोरदार स्वागत किया गया था। उस समय हर तरफ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा गूंज उठा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने उनके साथ मिलकर एक समझौता किया जिसे ‘पंचशील’ सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार दोनों देश एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे तथा घरेलू मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। कोई समस्या होने पर बातचीत द्वारा ही उसे सुलझाया जायेगा। लेकिन सर्वप्रथम इस समझौते को चीन ने ही तोड़ दिया तथा सबसे पहले तिब्बत प्रदेश हथिया लिया। वहाँ के लोगों को शरणार्थी बना दिया, इसलिए आज भी उनके धर्मगुरु दलाई लामा भारत में मौजूद हैं।
इसके बाद भी चीन ने भारत के उतर-पूर्वी सीमांत प्रदेश को अपनी सीमा में दर्शाना शुरू कर दिया। भारत के विरोध करने पर उसने आंशिक रूप से अपनी गलती स्वीकार की तथा भारत को आश्वासन दिया कि आगे से ऐसा नहीं होगा। लेकिन आगे क्या हुआ, चीन ने पूर्ण रूप से विश्वासघात करते हुए भारत पर 1962 में आक्रमण कर दिया और भारत के एक बड़े भूभाग पर अपना अधिकार जमा लिया जो आज भी कायम है। संसद में भारत के प्रधानमंत्री ने कहा कि – “ठीक है ,आज तुम शक्तिशाली हो, ले लो। जब मेरे पास शक्ति आएगी तब मैं इसको वापस ले लूंगा”। लेकिन वह भारतीय भू-भाग आज भी चीन के कब्जे में है। इस घटना ने नेहरू जी को इतना व्यथित कर दिया कि वो अस्वस्थ रहने लगे तथा अंत में उनका देहावसान हो गया। वास्तव में नेहरू जी इस तरह के हमले के लिए तैयार नहीं थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत अपना सारा ध्यान विकास की तरफ लग रहा था। वह अपने पड़ोसियों, से शांति की अपेक्षा रखता था, लेकिन इस घटना के बाद भारत को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ा। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया। भारत ने स्वयं को सैनिक दृष्टि से सक्षम करना शुरू किया। उसी का परिणाम है कि भारत आज एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है और कोई भी देश आज उसकी तरफ आंख भी उठाकर नहीं देख सकता है।
सन् 1962 में युद्ध के कारण भारत और चीन के बीच जो संबंध बिगड़ गए थे वे लगातार बीस वर्षों तक बिगड़े रहे। बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने चीन यात्रा करके उन रिश्तों को पुनः बहाल किया। भारतवासियों को मान सरोवर की यात्रा के लिए वीज़ा उपलब्ध कराया गया। राजदूतों का आदान-प्रदान हुआ, तथा कुछ व्यापार भी शुरू हुआ। धीरे-धीरे चीन के रूख में भी परिवर्तन आया और इस प्रकार चीन, जो कश्मीर मामले में पहले पूरी तरह से पाकिस्तान के साथ हो गया था, अब तटस्थ हो गया। अब इसे केवल भारत और पाकिस्तान के बीच का आपसी मामला बताकर चीन ने पूर्ण रूप से इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। इस तरह दोनों देश सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डालकर शांति बनाए रखने पर सहमत हो गए हैं।
संबंध सुधार तो निस्संदेह अच्छी बात है लेकिन इस प्रकार के संबंध आगे कब तक कायम रहेंगे, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। चूंकि इस समय भारत, चीन और पाकिस्तान तीनों ही परमाणु शक्ति संपन्न हो गए हैं इसलिए कोई भी युद्ध भीषण तबाही मचा सकता है तथा मानवता के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसलिए भारत तथा चीन दोनों को आपसी संबंध इसी तरह बनाए रखते हुए, हमेशा बहुत फूँक-फूँक कर कदम उठाने की आवश्यकता है।
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